Archana Saxena

Others

4.9  

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इन्द्रधनुष के रंग

इन्द्रधनुष के रंग

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रंग हीन सी लगने लगी थी अपनी जिन्दगी अब रागिनी को जैसे उसके हिस्से के सारे रंग ही पिता के साथ खो गये। 21 वर्ष की ही थी जब अकस्मात पिता का निधन हो गया। दोनों छोटे भाई अभी पढ़ ही रहे थे, बड़ा बारहवीं में और छोटा नौवीं में ही था। पढ़ तो वह खुद भी रही थी। इंजीनियरिंग कॉलेज के तीसरे साल में थी। माँ का तो रो रो कर बुरा हाल था। प्राइवेट नौकरी थी पिता की वह भी मामूली सी। किसी तरह बच्चों को पढ़ा रहे थे। अकेला कमाने वाला ही अगर न रहे तो घर का भविष्य क्या होगा? हर एक की निगाहों में व जुबान पर यही एक सवाल था जो माँ को भीतर तक तोड़ रहा था। ऐसे में उनका सम्बल बनी रागिनी। " रो मत माँ अब से मैं बेटा बन कर आपका सहारा बनूँगी।" न सिर्फ माँ को बल्कि उसने भाइयों को भी विश्वास दिलाया कि सबकुछ पहले की भाँति चलेगा। किसी को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। कॉलेज से आते ही ट्यूशन लेना प्रारंभ कर दिया था उसने। बड़े भाई सौरभ से भी उसने ऐसा करने को कहा परन्तु उसने पढ़ाई अधिक होने की मजबूरी बताई। माँ ने भी सौरभ का साथ दिया। घर के खर्चे तो किसी तरह चल जाते थे, भाई भी अधिक मँहगे स्कूल में नहीं पढ़ रहे थे। जब रागिनी का चौथे साल की फीस भरने का समय आया तो वह चिन्तित हुयी।  माँ ने तो पढ़ाई छोड़ने के लिये भी कह दिया पर रागिनी को स्वयं से ज्यादा भाइयो की पढ़ाई की चिंता थी। थर्ड ईयर के बाद उसे अच्छी नौकरी मिल नहीं सकती थी और कम सेलरी और ट्यूशन के सहारे दो भाइयो को पढ़ाना नामुमकिन था। ऐसे में मदद के लिये चाचा आगे आये। उन्होंने फीस के लिये पैसे उधार दिये। चौथे वर्ष के दौरान ही नौकरी भी मिल गयी रागिनी को। घिसटती गाड़ी को थोड़ा सा सहारा तो मिला लेकिन सौरभ तब तक कॉलेज में आ गया था। फीस भरने के लिये इस बार लोन लिया गया। बाकी की सारी जिम्मेदारी पहले की तरह रागिनी की ही रही।

 चार साल बीते। सौरभ को भी नौकरी मिल गयी परन्तु नौकरी शहर से बाहर होने की वजह से उसे दूसरे शहर जाना पड़ा। नयी नयी नौकरी में सेलरी इतनी नहीं थी कि नये शहर में गुजारे के अतिरिक्त कुछ बचा कर घर भेज सके। वैसे भी आदत ही कहाँ थी कि घर के लिये कुछ सोचता। ये जिम्मेदारी तो बस रागिनी की थी। अब छोटा भाई सुमित कॉलेज में था और खर्चे यथावत थे। माँ ने कभी सौरभ से गृहस्थी में सहारा लगाने को कहा ही नहीं। उन्हें बस उसकी मजबूरियाँ ही दिखती थीं। रागिनी की शादी की उम्र निकली जा रही थी पर कोई इस बारे में बात तक नहीं करता था। एक दिन सौरभ होली पर आया तो मिताली उसके साथ थी। उसने परिचय कराया कि यह खास मित्र है और जल्दी ही दोनो विवाह बन्धन में बँधने का सोच रहे हैं। माँ को खूबसूरत मिताली इतनी पसंद आयी कि झट हामी भर दी। उसे भी मिताली अच्छी लगी थी पर फिर भी एक उम्मीद थी कि माँ कहेगी कि रागिनी बड़ी है पहले उसकी शादी करेंगे। पर माँ ने ऐसा कुछ नहीं कहा। सुमित की पढ़ाई व घर सम्हालने की जिम्मेदारी जो रागिनी की थी। पहली बार रागिनी को लगा कि उसकी माँ स्वार्थी है। वह पढ़ी लिखी आधुनिक लड़की थी फिर भी माँ से कह न सकी कि उसे भी शादी करनी है।

हमेशा जी भर कर होली खेलने वाली रागिनी को पहली बार सारे रंग फीके लगे। इस बार सिर्फ आँसुओं से होली खेली उसने। सिर्फ सुमित को उसका दर्द दिखाई दिया। उसने माँ से रागिनी की शादी तक सौरभ की शादी टालने की बात की। पर माँ को डर था रिश्ता हाथ से न चला जाये।

  उधर मिताली के माता पिता को उसकी शादी की वैसे भी जल्दी थी। सब धूम धाम से सम्पन्न हो गया। दबी जुबान से रिश्तेदार बात भी कर रहे थे कि रागिनी की माँ को पहले बेटी के बारे में सोचना चाहिए था। माँ ने सुना तो गर्व से सबके सामने कहा  "किसी को फिक्र करने की जरुरत नहीं है। रागिनी तो बेटी नहीं बेटा है मेरा।"

बमुश्किल आँसुओं को रोक कर ऊपर से मुस्कुराई रागिनी।

सुमित का सारा ध्यान अपनी दीदी रागिनी पर था। वह आहत था पर अभी उसके हाथ बँधे हुये थे। सुमित ने अपनी बुआ को माँ से कहते सुना "माना रागिनी बेटा बनकर तुम्हारी गृहस्थी चला रही है। पर सौरभ भी तो बेटा है, उसकी शादी से पहले तुम्हे रागिनी के बारे में सोचना चाहिए था।"

   " दीदी आपसे घर की हालत छुपी नहीं है। रागिनी को ब्याह दूँगी तो सुमित का क्या होगा? दो साल की पढ़ाई अभी बाकी है उसकी।"

 "सौरभ को कोई जिम्मेदारी क्यों नहीं दी तुमने कभी? तुम्हें बेटी की कमाई की आदत हो गयी है। तुम स्वार्थी हो गयी हो। जिस बेटी ने तुम्हारे घर की नैया को पार लगा दिया तुमने बस उसी का नहीं सोचा। एक लड़का है मेरी नजर में बहुत अच्छा। आया भी हुआ है शादी में।"

 चौंक पड़ी रागिनी की माँ! हैरान होकर पूछा "कौन? किसकी बात कर रही हैं आप?"

मेरी जिठानी का लड़का रोहित। उम्र के लिहाज से भी जोड़ी ठीक है। मैं इसीलिये उसे लेकर आई थी। और उसे रागिनी पसन्द भी आ गई है।"  

माँ के कुछ बोलने से पहले सुमित ने हाँ कर दी। 

"बुआ रात दिन मैं इसी बारे में सोचता था। माँ पता नहीं क्यों दीदी का बुझा चेहरा नहीं देख पा रहीं, या यों कहूँ कि देखना ही नहीं चाहती। माँ के पास अब कोई उत्तर नहीं था। सुमित ने खुशी खुशी रागिनी को यह सब बताया। उसने माँ और बुआ के सामने ही रोहित से पूछा "सुमित की नौकरी लगने तक क्या मैं माँ और सुमित का खर्च उठा सकती हूँ?"

 रोहित ने मुस्कुरा कर कहा "तुम्हारे पैसे पर सिर्फ तुम्हारा हक होगा। जैसे चाहे कर सकती हो।"

 अचानक अनगिनत रंग फिज़ाओं में बिखर गए।रंग बिरंगे महकते फूल हर तरफ खिल गये। आज रागिनी के जीवन इन्द्रधनुष के सतरंगी रंगो सा रंगीन हो गया था।


 यह सच है कि आज बेटियाँ बेटे की तरह सारे फर्ज निभाती हैं परन्तु माँबाप भी कभी कभी स्वार्थी हो जाते हैं और अपने ही बच्चों के सपनों को नहीं समझ पाते।


  


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