होली खेलें पर सावधानी से
होली खेलें पर सावधानी से
कुछ समय पहिले की बात है फागुन पूर्णिमा को होलिका दहन हुआ था, जिसे अगजा भी कहते हैं। गाय के गोबर के बड़कुल्ले, चॉंद, सूरज बनाकर माला में पिरोकर होली पर चढ़ाये थे। चरखे पर काते हुए कच्चे सूत से उन्हें लपेटा था। गुझिया वग़ैरह का प्रसाद लिया था। इसके दूसरे दिन धुलैण्डी थी अर्थात् फाग खेला गया। सब बच्चे मस्ती में थे। मेरी छोटी बेटी भी होली खेलना चाह रही थी। उसके लिए पीतल की एक सुन्दर सी पिचकारी ली और टेसू के सूखे फूलों को रात भर भिगोकर दिन में उबालकर टेसू का प्यारा सा पीला रंग बनाया। बिटिया ने गर्म गर्म टेसू का रंग अपनी छोटी सी पिचकारी में भरा और छोड़ने लगी। हल्की ठण्ड थी। गर्म टेसू का रंग सबको पसन्द आया। वह भी बहुत ख़ुश थी।
पड़ोसन की बेटी हमारी बिटिया की हमउम्र थी, या एक दो साल बड़ी होगी, वह भी होली खेलने आ गई। उसने बिटिया को पिचकारी से होली खेलते देखा तो वह भी नक़ल में अपनी पिचकारी लेकर आ गई। उसकी पिचकारी सस्ते से टीन की बनी हुई थी। उसने पिचकारी में रंग भरा और आव देखा न ताव, मेरी बिटिया पर रंग डालने दौड़ी ।
बिटिया बचने के लिए भागी, उसके पीछे पीछे वह लड़की भी। लड़की ने पीछे से नज़दीक जाकर अपनी पिचकारी चला दी ,वह पिचकारी बिटिया के कान के बीच फँस गई और उसका कान कट गया। क़रीब आधा इंच गहरा कट गया।
तुरन्त रूई का फाहा लेकर उस पर डिटौल लगाया। घर पर डॉक्टर भी आए हुए थे, उन्होंने मरहम पट्टी की। पर फिर होली के रंग में भंग हो गया। बिटिया खेलना छोड़ रूऑंसी थी। नासमझी से अच्छा ख़ासा त्यौहार दुखद बन गया।
कुछ समय बाद बिटिया का कान तो ठीक हो गया, पर कटने का निशान बना रहा जो उस घटना की याद दिलाता रहा।
होली का हुड़दंग मचाने में लोग यह भूल जाते हैं कि सावधानी भी ज़रूरी है कि किसी को चोट न पहुँचे। शालीनता का ध्यान रखकर ही होली खेलें। बच्चों को त्यौहारों का महत्व बतायें, साथ ही सावधानी भी सिखायें।