एक थप्पड़ रही साइकिल की कीमत
एक थप्पड़ रही साइकिल की कीमत
मैं छटी कक्षा में आई आई थी , शरारती तो थी ही घर भर की लाडली भी , कोई कभी डांटता भी नहीं था पर इस साइकिल के चक्कर में एक थप्पड़ लगाया था पापा ने ।
हुआ यूं था मैं लडको के तरह रहती थी , वैसे ही कपड़े पहनती , अपने भाई से बहुत प्रभावित थी , बोलती भी खाऊंगा पियूंगा करके । इसलिए गली भर में उधम मचाते घूमना फिरना , बाहर के बाजार के काम भाग भाग के करना आदत सी थी मेरी । उन दिनों मध्यमवर्गीय परिवारों में यूं ही झट से साइकिल नही दिलवा दिया करते थे ।
किस्सा यूं हुआ कि पीछे की गली में एक लड़का रहा करता अशोक थोड़ा बड़ा था मुझसे और मैं इतनी मस्त थी की मुझे पता ही नहीं था की कैसा परिवार है ? लड़का क्या करता है ? कैसे नेचर का है ? मुझको दिखी उसकी लाल साइकिल , मैं मुंहफट साफ सीधा कहने वाली , सीधा उसको बोला की अशोक अपनी साइकिल देगा चलाने को , वो बोला की हां ले जा पर मुझे याद आया की मुझे तो साइकिल चलाना तक नहीं आता , मैने अशोक को कहा की मुझे सिखा भी दे , एक दिन में ही साइकिल आ गई मुझे चलानी, मैं हर रोज अशोक के घर के बाहर खड़ी हो जाती की एक बार साइकिल दे देगा क्या अशोक ? वो बेचारा तभी दे देता ।
एक दिन पापा ने देख लिया मुझे तो उन्होंने मुझे बुला के साफ मना कर दिया की तुम्हारी साइकिल आ जायेगी तुम आगे से अशोक की साइकिल नही मांगोगी । हां तो बोल दिया पापा को पर बालमन कहां कैसे मानें?
अगले दीदी ने कोई दवाई लेने को बोला , मैं पहले सीधा अशोक के घर और उस से साइकिल मांग कर चल दी बाजार और थोड़ा सा चलते ही अल्लाह खैर करे , पापा आ रहे सामने से , मेरा मुंह सफेद पड़ गया । पापा ने स्कूटर रोका अपना और पूछा कहां जा रही हो ? मैने कहा दीदी की दवाई लेने बोले पर्ची मुझे दो और चुपचाप पहले वापिस जा कर अशोक की साइकिल उसको दो और तुम घर पहुंचो ।
मैं साइकिल वापिस कर घर पहुंची । तभी पापा आ गए और मुझे बुलाया अपने पास और समझाया और एक थप्पड़ भी लगाया ।
कुछ दिनों बाद ही मेरी नई साइकिल आ गई थी ।