एक बार तो...
एक बार तो...
"उम्र सारी ज़िन्दगी में दो ही गुजरे हैँ कठिन
एक तेरे आने के पहले, एक तेरे जाने के बाद!
आज बहुत दिनों बाद आकाश ने अपने पसंदीदा पंकज़ उधास जी की गज़लों का एलबम बजा दिया था और सोच रहा था, अब वो कृषा को कह देगा "बहुत हो चूका यूँ दूर दूर रहकर सही दिन और तारीख का इंतजार करना, खुशियाँ तकदीर की मोहताज नहीं होतीं, अब वो भी इस ज्योतिष और भविष्यवाणी के चक्कर को छोड़कर जल्दी से साथ रहना शुरू कर दे."
तेज़ी से भागते दौर में वक़्त को रोक पाना संभव तो नहीं पर हर वक़्त को पूरी तरह अपनाकर जीने को ही तो ज़िन्दगी कहते हैँ.ज़ब लम्हों में सिमटती है ज़िन्दगी तो वक़्त का पता किसीको कहाँ चलता है. हर गुजरता वक़्त कुछ सिखाता तो ज़रूर है. यूँ कहें तो सौदेबाज़ी में बिल्कुल पक्की है ये ज़िन्दगी... अनुभव देती तो है पर उम्र ले लेती है.
कभी नए साल का जो हंगामा है वो तो फकत तारीख बदलती है, तकदीर बदलने को तो ज़िन्दगी पड़ी है. कभी एक दूसरे को सँभालने तलक कई बार ज़िन्दगी फिसल जाती है हाथ से. आए दिन मानव मन की विसंगतियाँ कुछ ना कुछ बदलाव तो चाहती ही है और आरम्भ अंत से परे जो मध्यान्ह का समय होता है वो बहुत अपना सा होता है. तारीख बदलती है तो मन अकर्मन्य सा हो जाता है. आज का सोचा कार्य पूर्ण ना होने की स्थिति में थोड़ा सा मन चिड़चिड़ा तो हो ही जाता है. इस किदवन्तियों के क्रम में ये सब चलता ही रहता है.
ऐसे ही ख्यालों से उभरकर ज़ज़्बातों से सराबोर होकर आकाश अब कृषा को अपनी बात से कनविन्स करने चल पड़ा. हाँ, रोमांस की उम्र थोड़ीपीछे रह गई पर साथ रहने और एक दूसरे का साथ देने के लिए कोई निश्चित उम्र थोड़े ना होती है.
पिछले दस सालों से एक ही ऑफिस में आकाश और कृषा काम करते थे, एक जैसी रुचियों और स्वाभाव के मेल होने की वजह से उनका सहज दोस्त बन जाना बड़ा ही सहज़ स्वाभाविक था. बाद को ज़ब आकाश को पता चला कृषा कम उम्र में ही विधवा हो गई थी तो उनकी नज़र में कर्मठ और स्वाभिमानी कृषा के लिए सम्मान और बढ़ गया. इधर आकाश भी चार भाई बहनों में सबसे बड़ा था, कम उम्र में ही एक रोड एक्सीडेंट में माता पिता को खो देने के बाद भाई बहनों की ज़िम्मेदारी और घर की ज़रूरतों को पूरी करने में भाई बहन तो अच्छी तरह पढ़ लिखकर सेटल हो गए पर आकाश की शादी की उम्र निकल गई फिर कोई मिला नहीं जिसके साथ आगे का सफऱ गुजारने का मन होता बस इसलिए अब तक अकेला रह गया था. अब कृषा के सुलझे व्यक्तित्व और सौम्य स्वाभाव ने कब उसके दिल पर दस्तक दे दी पता ही नहीं चला. अब ज़ब उन्होंने अपने मन की बात कृषा से कही तो वो एकदम से स्याह पड़ गई. पढ़ी लिखी और आत्मनिर्भर होने के बावज़ूद भी कृषा अपने आपको एक विधवा ही समझती थी और अपशकुनि भी.
कहती "हम विधवाओं की तो उलटे हाथ की रेखाएं भी तकदीर का तमाशा दिखाती हैँ. गर जो मेरा पहला पति मेरी हाथ की लकीरों में था तो मैं विधवा ही क्यूँ होती भला "!
यही देखती आई थी बचपन से सुना भी यही था. फिर ज़ब उसने अपने घर पर माता पिता से अपने पुनर्विवाह की बात की तो उन्होंने पंडित जी को दोनों की कुंडली दिखाई तो पंडित जी ने कहा, कि अगले तीन सालों तक कृषा विवाह नहीं कर सकती क्यूंकि उसके होनेवाले पति पर मारक योग है मतलब उसकी मृत्यु हो जाएगी. इस भविष्यवाणी से डरकर कृषा ने उनसे एक दुरी बना लिया था और अपना ट्रांसफर भी दूसरे शहर में करवा लिया था और कहती रही थी कि... अब एक और बार विधवा नहीं होना चाहती.
पर इन दिनों कृषा भी खुद को बहुत अकेला महसूस कर रही थी. रोज़ रोज़ ऑफिस का साथ और मन की बात सुनने समझनेवाला आकाश कब उसकी आदत बन चूका था ye कृषा को साथ रहते हुए कभी महसूस ही नहीं हुआ.
इधर आकाश को भी कृषा के बगैर कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. वो आज ऑफिस से तीन दिन की छुट्टी लेकर विलासपुर के लिए रवाना हो गया. वैसे भी रायपुर से विलासपुर है ही कितनी दूर. सोचकर निकला था कि अब कृषा को जल्दी विवाह के लिए मना कर ही लौटेगा.
वहाँ जाकर देखा तो उदास सी कृषा उसे देखते ही ख़ुश हो गई "चलो ना साथ रहते हैँ " दोनों के मुंह से एक साथ निकला और दोनों खिलखिला पड़े.फिर अगले कुछ दिन माता पिता को बताने और विवाह समारोह में निकला. थोड़े से विरोध के बाद सब मान गए.
आज आकाश और कृषा के वैवाहिक ज़ीवन की शुरुआत थी और बालकनी में ख़डी कृषा सोच रही थी कि... खुशियाँ तारीखों की मोहताज नहीं होतीं, दिल से महसूस की जातीं हैँ अपनों के साथ. तभी आकाश दो कप कॉफी लेकर आया उसे सोच में डूबा देखकर उसके कंधे पर प्यार से हाथ रखते हुए गुनगुना उठा, "फिर से मौसम बहारों का आने को है,फिर से रंगी ज़माना बदल जायेगा "
और कृषा भी उसके सुर में सुर मिलाकर गा उठी.
सच खुशियाँ तारीख पर नहीं बल्कि हमारी मनःस्थिति पर निर्भर करतीं हैँ. हाथ की रेखाएं भविष्य बता सकतीं होंगी पर भविष्य खुद बनाना पड़ता है.
