डायरी दिनांक १०/०९/२०२१
डायरी दिनांक १०/०९/२०२१
शाम के तीन बजकर चालीस मिनट हो रहे हैं ।
मन के भावों को कलम के माध्यम से लिखते समय अक्सर लेखक अनेकों बंधनों को तोड़ देता है। फिर केवल भाव रह जाते हैं। जिनका सम्मेलन ही एक साहित्य बनाता है।
विभिन्न साहित्य में डायरी लेखन ही ऐसा साहित्य हैं जो कि प्रत्येक बंधन से मुक्त होता है। लेखक के मन में जो भी आये, उसे सही सही लिख देना ही साहित्य है। वास्तव में अनेकों महान लोगों का डायरी लेखन इतना पारदर्शी होता है कि अक्सर मन में शंका भी होने लगती है कि कोई इस तरह बिना छिपाये कुछ भी किस तरह लिख सकता है। अक्सर लगने लगता है कि शायद किसी अन्य लेखक ने उसके कुछ अंश जोड़े हों।
शायद व्यापारीकरण के दौर में हर व्यक्ति और संस्था प्रतिस्पर्धा से जूझ रहे हैं। फिर विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं को लगने लगता है कि लेखक उसका प्रयोग निजी फायदे के लिये कर रहे हैं।
सत्य है कि लेखक भी मनुष्य ही है। उसमें भी कुछ कमियां हो सकती हैं। वह भी विभिन्न सांसारिक बुराइयों से प्रभावित हो सकता है। वह भी मौके का फायदा उठा सकता है।
इधर कुछ समय से मेरे लेखन में शिथिलता आयी है। क्योंकि एक तो इस समय मम्मी की आंख का आप्रेशन हुआ है। दिन में अभी अनेकों बार दबाई डाली जाती है। अभी तक तो ऐसा नहीं हुआ है कि मुझसे कोई दबाई समय पर छूट गयी हो।
कल शाम मैंने देखा कि मम्मी बिना काला चश्मा लगाये बाथरूम में जा रही हैं। फिर मेरी ओर मम्मी की कुछ बहस हो गयी। वास्तव में सच्ची बात यह है कि डाक्टर की दुकान पर मिलने बाले काले चश्मे बहुत सुविधाजनक नहीं होते हैं। उनका काम पूरी आंखों को कवर करना ही होता है। जिससे आंखों पर सीधी रोशनी न पड़े। पर लगातार लगाने पर शायद ये कान के पीछे दर्द करने लगते हैं। जबकि हम जो चश्मे नजर के लिये लगाते हैं अथवा जो चश्मे शौक मौज के लिये भी लगाते हैं, उनमें बहुत अंतर होता है। मैं तो लगभग पूरे समय चश्मा लगाये रखता हूं।
हालांकि मुझे याद आ रहा है कि विद्यार्थी जीवन में जब मैं सस्ते फ्रेम के चश्मे लगाया करता था, वे चश्मे नाक और कान के स्थान पर चुभते थे। नाक पर तो एक निशान सा बन जाता था। अब जिन चश्मों का प्रयोग करता हूं, उनमें ऐसी दिक्कतें नहीं होती हैं।
मानव मन की विकृतियों का उल्लेख करते समय एक प्रसिद्ध संत ने अपने अंत समय पर उपदेश दिया।
" संसार समझता है कि मैंने मन को जीत लिया है। पर सत्य यही है कि पूरे जीवन की साधना के बाद भी मुझे विश्वास नहीं है कि मेरा मन किसी सुंदर स्त्री के दर्शन से भटकेगा नहीं। सत्य है कि मन पर नियंत्रण आवश्यक है। पर साधक को चाहिये कि वह कभी भी अहंकार न करे कि उसने मन को जीत लिया है। मन कभी भी पूरी तरह जीता नहीं जा सकता है। साधक को उसे लगातार अपने नियंत्रण में रखना चाहिये। तथा जिनसे मन भटक जाये, ऐसे विषयों से दूर ही रहना चाहिये। "
लगता है अहंकार का त्याग करना ही सच्ची साधना है। जो कि वास्तव में अति कठिन है।
निश्चित ही ईश्वर उच्च कोटि के साधकों के समक्ष शीश झुकाते हैं। पर उच्च कोटि के साधक तो खुद को हमेशा संसार के सामने से छिपाये रहते हैं। महर्षि रैक्य की तरह संसार में रहते हुए भी अपने अस्तित्व को छिपाने का प्रयास करते हैं। सत्य तो यही है कि सच्चे साधक अहंकार से बचने के लिये अपनी साधना को भी छिपाते हैं। अति आवश्यक होने पर ही खुद को संसार के सामने प्रस्तुत करते हैं।
आज के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।
