बस्ती के दो परिंदे
बस्ती के दो परिंदे
अक्सर शहरों के बाहर कुछ बस्तियाँ बस जाया करती है। इन बस्तियों की एक खास बात होती है की इन बस्तियों में सबके लिए जगह होती है। लोग भले ही आपस में भेदभाव करते हो पर बस्ती भेद भाव नहीं करती। कोई छोटा काम करता हो या बड़ा, सही या गलत, बस्ती सबको एक जैसे अपनाती है, बाहें फैला कर। बस्ती का एक दस्तूर ये भी है की यहाँ कोई बच्चा हो या बूढ़ा सबको अपना संघर्ष खुद ही करना पड़ता है।
ऐसे ही संघर्ष के भवर में फँसे दो परिंदे है 12 साल की कुसुम और 11 साल का रघु। एक बार जिस चैन या पर्स पर इन दोनों की नज़र पड़ जाये वो फिर कभी दोबारा किसी को दिखाई न दे। दोनों के काम की जगह भी एक ही है। रेलवे स्टेशन, बसस्टैंड, मार्किट सबके चप्पे चप्पे से वाक़िफ़ है दोनों। दोनों एक दूसरे के प्रतिद्वंदी है, पर उसूलों वाले। जिसका हाथ माल पर पहले पड़ता माल उसका, दूसरा फिर उस में अपनी टाँग नहीं अड़ाता। आज फिर दोनों रेलवे स्टेशन पर अपना शिकार ढूंढ रहे है। कुछ देर बाद उनकी नज़र एक आंटी के गले में पड़ी एक मोटी सी सोने की चैन पर पड़ती है। पर इससे पहले की कोई भी अपनी किस्मत को आजमाता आंटी अपनी चैन निकालकर बैग में रख देती है।
दोनों एक साथ बैग की तरफ बढ़ते है पर रघु से पहले कुसुम बैग को ले उड़ती है, रघु खड़ा देखता ही रह जाता है। पर तीसरे ट्रैक को पार करते हुए कुसुम ठोकर खाकर गिर पड़ती है। उसकी किस्मत अच्छी थी क्योंकि बैग वाली आंटी और उनके पति की नज़र उस पर पड़ने ही वाली थी की अभी उसके बगल वाली ट्रैक पर ट्रैन आ गयी और वो लोग उसे देख नहीं पाए। रघु समझ गया था की उसे ज्यादा चोट लगी है। वो बिजली की तेजी से दौड़ा और ट्रैन के गुजरने से पहले ही फुट ओवरब्रिज पार कर कुसुम के पास पहुंच गया। इससे पहले की कुसुम कुछ समझ पाती रघु ने बैग उठाया और उसी तेजी से बस्ती की और भाग गया। कुसुम बस उसे देखती ही रह गयी।