बो !
बो !
आम तौर पर गांव देहात में इस एक अक्षर के शब्द `बो ' का अर्थ ,जिस पुरुष नाम के बाद लगने के बाद उस पुरुष की पत्नी से होता है, रमेश बो यानि रमेश की पत्नी ....गांव की औरतें इसका ढंग से इस्तेमाल करती हैं बतियाने गरियाने और जीवन के कई भावों को व्यक्त करने में, हमारे जीवन में एक ऐसी ही औलाद बो हैं।
औलाद की पत्नी, जब फिल्मों की पब्लिसिटी रिक्शे पर होती तब औलाद की आवाज़ में इस शहर की सड़कों पर रिक्शा घूमता, आपके शहर कसया के जय प्रकाश टाकीज में चल रही है मशहूर फिलम शहंशाह ....
लगभग तीसों साल औलाद बो ने हमारे घर काम किया, उनके बच्चे बढ़ते रहे, हम लोग भी अपनी रफ्तार से होली बीती दीवाली भी, ईद भी बकरीद भी, ये रिश्ता चलता रहा, शादियाँ हुई बच्चे हुए, हम लोगों के परिवार हुए, उनके बच्चों के भी, चलता ही रहा समय की चाल से, बस उमर साथ छोड़ गई, आँखों का मोतियाबिंद, शरीर पर उमर का असर जो हुआ, एक स्वेच्छा से रिटायरमेंट ले लिया, समय जो कभी न रुकता ऐसे में कैसे रुकता।
सो नई काम के लिए कोई न कोई आ गया झाड़ू बर्तन पहले जैसा चल पड़ा, अब वो आती हैं होली की बुकुआ लगाने सिर्फ, अपनी नाती पोतियों के सहारे, आँख से जो कम दिखता है ,उनकी नीली पड़ती आंखे अब चेहरे टटोल के बोलती हैं नन्दू हवें का !!
हाँ हम ही हुईं नन्दू तोहार नन्दू !!!! नीली पड़ती आँसू का रंग पानी सा ही होता है कोई अलग नहीं।
ये पहली होली बीती उनके बुकुआ के बिना हमारे और बच्चों के लिए भी
अभी हाल में ही उनका लड़का आया था तो बताया अम्मा गिर गइल बिया हड्डी टूट गइल बा, मम्मी ने कुछ रुपए दिए उनके लिए ,अभी तो सब लोग घरों में हैं थोड़ी रियायत हो तो जाएंगे देखने उनको, कुछ रिश्ते बड़े ख़ास हैं हमारे लिए जैसे इनका और हमारा, ईश्वर मेरा और उनका अल्लाह दोनों मिल के उन्हें सलामत रखे !