बिछडे दोस्त
बिछडे दोस्त
मैं अपने सेवानिवृत्ति के अंतिम साल में प्रवेश कर चुका था। दो-चार माह बाद मई में सेवानिवृत्ति होने वाली थी। बैठे- बैठे सोचने लगा समय कितने तेजी से हाथ से निकल गया है। पता भी नहीं चला। बचपन से लेके जवानी, और बाद में विवाहित जीवन, बच्चों की परवरिश और उनकी गृहस्थी बिठाना और माता-पिता का जीवन से निकल जाना। इसी जंजाल में पूरा जीवन बीत जाना। ये सब आंखों के सामने से गुजर रह था। थोड़ी देर लिए समय मानो रुक गया था। और जो साथी बचपन से लेके कॉलेज में साथ में थे । एक -एक करके आंखों के सामने से अपनी दस्तक दे रहे थे। अचानक भ्रमण ध्वनि यंत्र की आवाज गुंजने लगी। मोबाइल की और देखा तो अनजान नंबर दिख रहा था। सोचा कोई गलत नंबर होगा। नहीं उठाते , बजने दो । लेकिन आवाज में कुछ अपनेपन की तरंगें महसूस हो रही थी। फोन कटनेवाला ही था।
अरुण: कहां हैलो , कौन, सामने से आवाज आई,
गुनवंता :अरे मैं गुनवंता बोल रहा हूँ। बोलने से पहिले उसने कहा, अरे अरुण बोल रहा है क्या ?
अरुण: जब नाम के साथ पुकारा। तो पहचानने की कोशिश कर ने लगा।
गुनवंता: अरे तेरे बचपन का दोस्त।
अरुण: दिमाग की बत्ती जली, अरे हां, कैसे याद आई तुझे यार इतने सालो बाद।
गुनवंता: अरे मैं गांव गया था। अचानक बाबाभाऊ से मुलाकात हूँ । उसने तेरा नंबर दिया। तभी मैंने ठान लिया की नागपुर आनेपर तुझसे बात करूंगा और मिलने आऊंगा। उसने अन्य मित्रों के बारे में भी चर्चा की थी। और श्रीकांत की भी चर्चा की। बताया की वह भी उसके घर के पास ही रहता है। उससे अभी- अभी मुलाकात हुई थी। हमारी, तेरे अन्य मित्रों के संबंध में बात हुई। जब हमें पता चला की तू भी नागपुर में ही रहता है। तो हमने मिलने का प्लान बनाया। और आज तेरे से बात होने से वह सफल होने के असार बढ़ गये है।
अरुण: नेकी और पूछ-पूछ। कब आ रहे हो ?
गुनवंता: अगले रविवार। पक्का,
अरुण: पक्का , जरूर, मैं इंतजार करूंगा ! संवाद खत्म होने के बाद , मैं सोचता रहा । जिंदगी भी अजीब है। कभी किसी को बिना बताएं मिला देती। तो किसी को गुम कर देती है। मन बहूँ त खुश था। अरे कई सालों बाद बिछड़े यार –दोस्त मिलने वाले थे। सभी पुराने किस्से, यादें और क्षण, जो साथ- साथ जीए थे। वो एक- एक करके मन मस्तिष्क पर अपनी दस्तक और हाजरी लगा रहे थे। बीच -बीच दिमाग में खयाल आ रहा था। अरे वे कैसे दिखते होंगे । क्या मैं उन्हें पहचान पाऊंगा ? ये समस्या तो उनकी भी होगी। क्या वे मुझे पहचान पायेंगे। ऐसा कैसा हो सकता है कि हम एक-दूसरे को नहीं पहचानेंगे ? इसी कशमकश में पत्नी का आगमन हुआ।
वर्षा : क्यों आज भूख नहीं लगी ? बहूँ त खुश दिख रहे हो। क्या प्यारी साली का फोन आया था। या किसी सहेली का ?।
अरुण: अरे नहीं। इन से भी व्ही.आय. पी का फोन आया था।
वर्षा : हम भी तो जाने। कौन है ये व्ही. आय. पी ?
अरुण: अरे तुम्हें याद है। मैं, बड़े भाई और मेरा मित्र , तुम्हें देखने आये थे।
वर्षा : कैसे भूल सकती हूँ , उसे देखकर तो मैंने शादी के लिए हां करी थी। बाद में पता चला की लड़का वो नहीं। आप थे।
अरुण: अरे ऐसी बात थी तो मना कर देती। हम भी तुम्हारे जैसे बला से मुक्ति पा लेते।
वर्षा : सोचा तो कुछ ऐसा था। घरवालों ने कहा वो भी लड़का अच्छा है। अच्छा लिखा-पढ़ा है। हमने कहां चलो। जब बंदूक से गोली निकल चुकी है। घर वालों की भी
बात मान लो। अच्छा छोड़ो बहुत हो गई मजाक। क्या खाना खाओगे की नहीं ?
या अपने दोस्तों के यादों से ही पेट भर गया है।
अरुण: चलो खाना खा लेते है। खाना खाते-खाते मैंने कहा, अगले रविवार को वो दोनों मित्र घर आनेवाला है।
वर्षा : बड़ी खुशी की बात है। आप के पुराने मित्र आनेवाले है। क्या उन्हें खाने का न्योता दिया है ?
अरुण: नहीं। आने के बाद देखेंगे । वैसे तुम खाना बनाने में बहुत तेज हो। तुरंत बना देगी। पत्नी के प्रस्ताव पर धीर – धीरे विचार करने लगा। बाद में उनके प्रस्ताव पर अमल करने का सोचा। रविवार को जब वो फोन करेगा, उसी वक्त न्योता दे देंगे। फिर में अपने पुराने दुनिया में लौट गया था। जिंदगी किस मोड़ पर क्या करवट लेगी यह तो सिर्फ समय को ही पता रहता है। हम सब इस जादुई दुनिया में मूक नायक है। सिर्फ समय आने पर, समय के साथ अपने आप को ढाल लेते है। जलो छोड़ो । फिर बचपन के वो दृश्य आंखों के सामने से गुजरने लगे। हमारे साथ जो किस्से हुए थे , वो एक –एक करके याद आने लगे। मैं उन सभी यादों को फिर ताजा करने लगा। मन बना लिए, वो आने पर ये सभी किस्से फिर से याद करके खूब ठहाके लगायेंगे। खुब जमके हंसेंगे। जैसे पहले हँसते थे। उस मुलाकात को बचपन में बदल देंगे !। बस अभी उसी व्यक्त का इंतजार था। समय बीत गया। वो दिन और वो सुहानी सुबह आ गई थी। जिसका हम मित्रों को बड़े बेसब्री से इंतजार था।
वर्षा : अरे साहेब क्या कर रहे हो ?। कितने देर से आपका मोबाइल आपको पुकार रहा है। शायद किसी सहेली का फोन हो। जाओ जल्दी, वरना रुठ जायेगी।
अरुण : सारी औरतें, मैंडम आप की तरह नहीं होती, जो बात –बात पर रुठ जाती हो। यह कह कर मैं मोबाइल की और अग्रसर हूँ आ। फोन उठाया। हैलो- हैलो।
गुनवंता: अरे मैं गुनवंता बोल रहा हूँ । हम आज दोपहर पर आ रहे है। श्रीकांत भी साथ में आयेगा।
अरुण : अरे आव -अरे आव, पक्का आव। तुम्हारी ही राह देख रहा हूँ । अरे दोपहर को क्यों आ रहे हो। जल्दी आव। बहुत बेचैन हूँ । वो मिलन की घड़ी कब आयेगी। जल्दी आते तो यही भोजन कर लेते। अरे ये मेरा नहीं। आप के भाभी का ही प्रस्ताव है। नाश्ते की जगह खाना ही बना लेती हूँ । आप के मित्रों को खाने पर ही बुला लो। अरे तुम्हारे बहाने मुझे भी कुछ अच्छा खाना खाने को मिल जायेगा।
गुनवंता: अरे भाभी रोज क्या अच्छा खाना नहीं बनाती ? आने पर पुछूंगा ? अरे लेकिन खाने पर नहीं जमेगा। क्योंकि श्रीकांत को कुछ जरूरी काम है। उसके वजह हम लेट भी हो सकते है। भाभी इंतजार में गुस्सा भी भर सकती है तेरा अच्छा खाना खाने का सपना चकना- चुर भी हो सकता है। इसलिए तू उसकी चिंता मत कर और खा पीके हमारा इंतजार कर !
अरुण : अरे खाना –पीना तो दोस्तों के साथ ही होता। मैं हँसते हूँ ये बोला। चलो जैसे आप की मर्जी। आवो, आंखें बिछाकर खड़ा है ये दोस्त तुम्हारे इंतजार मैं, मायूस मत करना , बस इतना खयाल रखना। मेरे दोस्तों। यह खबर मैं अपने पत्नी को बताई। अरे मेरे दोस्त आज आने वाले है। लेकिन उनके नसीब में आप के हाथ का स्वादिष्ट खाना नहीं है। वे दोपहर में आयेगें। आगे तुम्हारी मर्जी। आप मेरे दोस्तों का कैसा स्वागत करती है। यह तुम जानो। समय धीरे- धीरे आगे बढ़त रहा। मैं इंतजार में डुबता चला जा रहा था। अचानक मोबाइल बजा। देखा, तो उसी का फोन था। मैंने बोला हैलो।
गुनवंता: अरे हम राज स्वीट तक आ गये है। आगे कैसे आन ?।
अरुण : अरे आप वही खड़े रहो। मैं पहुँच रहा हूँ । और मैं निकल पड़ा। देखा तो अभी वे आने के थे। तब तक मैंने कुछ मिठाइयां खरीदी। बस थोड़ी देर बाद एक गाड़ी में से आवाज आई । अरे आप लोग आ गये !। चलो सीधे घर ही चलते है। अरे मेरे पीछे - पीछे आओ। मैं चलने लगा। और मुझे देख- देख कर पीछे - पीछे आते रहे । हम घर पहुँचे। मैंने गाड़ी लगाने का संकेत दिया। गाड़ी लगा कर, वे आगे मेरे तरफ बढ़ने लगे। वह एक अनोखी मिलन की घड़ी थी। पुराने मित्रों के मिलन की। और मैंने उनका गर्म जोशी से स्वागत किया।
वर्षा : घर में से आवाज आई। अरे साहबजी उन्हें क्या रास्ते पर ही खड़ा रखेंगे ?
अरुण : अरे अंदर चलो। वर्णा और दूसरी डाट पड़ेगी । हम सब भीतर आयें। मेरे मित्र कभी मुझे देखते , कभी मेरे मकान को देखते, उन पर लगी सिनेरी और बाकी कुछ और । बेएच –बीच में कुछ बातें करते। तो वे कभी शोकेस में रखे पुरस्कार की और। उतने में ही मेरी पत्नी के पायल और चूड़ियों की आवाज आने लगी। समय के साथ आवाज धीरे-धीरे तेज होने लगी। सबको अंदाज होने लगा की घर की मालकिन आने वाली है। सभी ने अपनी आवाज धीमी की और अपने आप को संतुलित करते हुये अपने नजरे दरवाजे की और केंद्रित की थी।
वर्षा : अरे आप लोगों की आवाज बहूँ त धीमी हो गई। मेरे आने से पहले , कोई राज की बात हो रही थी क्या ? ऐसी बात हो तो में बाद आती हूँ ! क्योंकि ये कह रहे थे, मुझे मेरे दोस्तों से बहूँ त सारी बाते करनी है। आप के आने के खबर के बाद ही ये अपने भूतकाल में चले गये है। हमें तो लगा की वर्तमान में यह प्राणी है की नहीं।
गुनवंता: ऐसी कोई बात नहीं है । भाभी, साथ में श्रीकांत ने भी हां में हां मिलाई।
अरुण : मैंने कहां। अच्छे दोस्त हो । जल्दी पाला पलट लेते हो। मैंने कहां ये जरूरी भी है। क्योंकि आप की आवभगत तो उसे ही करना है। मैंने फिर अपने मित्रों का परिचय करते हुये कहा। ये श्रीकांत है। और इसे तो, तुम खुप जानती हो। गुनवंता , जिसके कारण मैं आप के मांग का सेंदुर बना हूँ ।
श्रीकांत : अरे ये क्या बोल रहे हो अरुण।
अरुण : अरे इसे देखने, मैं, गुनवंता और बड़े भाई गये थे। इसका कहना है की गुनवंता को ही ये लड़का समझी। शादी के लिए इसे ही समझकर हां कर दी थी। लेकिन शादी में , मैं दुल्हा बनकर आया। और उसके साथ धोका हूँ आ है। अरे बच गयें। तुम्हारे भाभी ने इस जन्म में समझौता कर लिया । वर्णा आज मैं गुनवंता के कारण जेल में चक्की पिस रहा होता। हम सभी खिलखिलाकर हंसने लगे।
वर्षा : वैसे आप भी ज्यादा बुरे नहीं। चला लेते है इस जन्म में। लो भाई साहब जल ग्रहण करो। तब तक मैं आप लोगों के लिए कुछ अच्छा सा गरम-गरम नाश्ता बनाती हूँ । मित्रों ने कहा रहने दो। भाभी।
वर्षा : अरे वाह । कैसे रहने दो। कितने सालो बाद आये हो। मैंने तो इनसे कहा था की खाने पर ही बुला लो। लेकिन आप लोगों ने मना किया। कम से कम आप नाश्ता के हकदार तो है ही। वर्ना आप जाने के बाद तो ये मुझसे लड़ पड़ेंगे । आज ये बहूँ त खुश है। और आज मैं इनके साथ लड़ने के मूड् में नहीं और वो किचन की और चल पड़ी।
अरुण : जैसे ही वर्षा अपने किचन की और चलने लगी, हम सब सहज हूँ ऐ। एक दूसरे के तरफ मुस्कुरते हूँ ऐ , ये एहसास किया की मानो हम लोगों का जीया सदियों से एक दूसरे से मिलने के लिए बेकरार था। मैंने अपने परिवार की जानकारी एक तस्वीर के तरफ इशारा करते हूँ ये कहा आप ने मेरे पत्नी को तो देखा। तस्वीर में जो एक और जनना दिख रही है, वो मेरी बड़ी पुत्री है। और उसकी शादी हो चुकी है। और वह एक सॉफ्ट्वेयर इंजीनियर है, दामाद भी वही पुना में इंजीनियर है। शीघ्र ही हम लोग नाना- नानी बनने वाले है। तस्वीर में जो लड़का है। वह हमारा छोटा पुत्र, कुणाल है। अभी उसकी शादी नहीं हूँ ई है, वह भी इंजीनियर है। अभी- अभी पुरानी कंपनी छोड़कर , बेंगलरु से पुना आया है। अभी हम लोग पहिले से ज्यादा खुश है। अभी उसकी शादी करने की भी सोच रहे है।
बस यही परिवार की कहनी है। चलो आप अपने बारे में कुछ बताव।
श्रीकांत : श्रीकांत ने कहा अपनी भी कहनी कुछ तेरी जैसी है। बस फरक इतना है की तुम्हारी भाभी टिचर है। मैं उसका निकम्मा छात्र हूँ । हंसते हूँ ये वो बोला। मेरे भी लड़की की शादी हो चुकी है। हमें एक नवासा है। लड़का इंजीनियर है। यही नागपुर के कंपनी में काम करता है।
गुनवंता: गुनवंता हँसते हूँ ये कहा, मेरी कहानी थोड़ी सी अलग है। मुझे दो पुत्र है। एक बड़ा इंजीनियर है। वो बेंगलरु के कंपनी में कार्यरत है। और दुसरा इंजीनियरिंग पढ़ रहा है। मेरी भी पत्नी हेड्मास्टर्नी है। मेरी भी हालत श्रीकांत जैसी है।
अरुण : अरे बहुत खूब, अच्छा है। दोनों कमाते हो। आज के महंगाई के जमाने में यह बहुत जरूरी है। और सुनाव, फिर हम लोग अपने पुरानी यादें को ताजा करने लगे। अरे तुम्हें याद है वो दिन जब हम लोग कोई टिचर छुटी पर रहता था, तो हम कितने खुश होते थे। प्रयास करके फूट्बॉल खेलने की परमिशन लेकर कड़े धूप में भी फूट्बॉल खेलते थे। हमें टिचर भी परमिशन देते थे क्योंकि हम जीतने पढ़ने में तेज थे, उससे कई गुना बदमाश थे। लेकिन हमारी बदमाशी को नजर अंदाज किया जाता था क्योंकि हम तेज पढ़ने वाले छात्रों के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी जैसे स्कूल में कार्यक्रम हो, कोई नई स्कूल की गतिविधियां हो, उसमें हमारा योगदान सराहनीय रहता था। हम हर क्षेत्र में अव्वल रहा करते थे।
गुनवंता: हां यार, अरुण सही बात है। इस पर , श्रीकांत ने भी अपनी मोहर लगाई। फिर हम लोग अन्य मित्रों के बारे में भी चर्चा करने लगे। जिसको जो याद आ रहा था वो अपने विचारों के साथ व्यक्त कर रह। था। इस वार्तालाप में पूरे छात्र जीवन की पुरानी श्रृंखला आंखों के सामने जीवित खड़ी हो गई थी। हम सब मित्र कॉफी भावुक हो चुके थे। फिर वर्षा की आने की आहट सुनाई पड़ी । देखा की वो हमारे लिए नाश्ता बनाकर लाई थी। मित्र कहने लगे। अरे भाभी इसकी क्या जरूरत थी?।
वर्षा : उसने कहां, क्यों जरूरत नहीं है। मैं देख रही और सुन रही हूँ की जिस जोश और भावनाओं के साथ आप बाते कर रहे हो। इतने जोर से हंस रहे हो। आप लोगों को निश्चित ही अच्छे भारी नाश्ते की आवश्यकता है। वर्णा आप लोग को शक्ति कैसे प्राप्त होगी? इसलिए ये गरम- गरम नाश्ता आप लोगों के खातिरदारी में पेश है। इत्मीनान से गरम- गरम नाश्ता का स्वाद लीजिए । मैं तब- तक चाय रखती हूँ । और वो निकल पड़ी ।
अरुण : अरे चालू करो यार। नहीं तो गरम- गरम नाश्ता कुल- कुल हो जायेगा। नाश्ते का गुनगान गाते हूँ ये हम इधर- उधर की फिर बाते करते हूँ ये, नाश्ते को अंतिम चरण में ले गये। चाय का इंतजार कर रहे थे। उतने में हि हमारी श्रीमती चाय लेकर आ गई। मित्रों ने नाश्ते की तारीफ की और हमारी मैडम बहुत खुश और गद-गद हो रही थी।
वर्षा : उसने कहां, ये तो कभी मेरे खाना या नाश्ता हो किसी बात की तारीफ नहीं करते। तारीफ के लिए आप दोनों साधुवाद के पात्र हो। कुछ ऐसा करने को अपने मित्र को भी सीखाव ! और वो चली गई। मित्र हँसते हुये बोले, भाभी के सुझाव पर अमल किया करो!
अरुण : मुस्कुराते हुये बोला, पत्नी के लिए पति के अच्छाई की कोई सीमा नहीं होती। वह तो उसके लिए घर की मुर्गि दाल बराबर होती। दुःखी होने का कारण नहीं। यह् तो घर-घर की कहानी है। हम सब मुस्कुराने लगे। सबने मेरे विचारो से सहमती जताई। लेकिन मौका देख के पत्नी की झूठी तारीफ करने का समर्थन किया। बातचीत आगे चलती रही। जिसको जो याद आया वो कहता रहा। आनंद लेते रहे। खूब मुस्कुराते रहे। काफी समय बीत जाने के बाद फिर वह लमहा आ गया, एक- दूसरे से विदा होने का। भारी मन से मित्रों ने कहां, अभी चलते है। फिर ऐसे ही बीच –बीच मिलते रहेंगे। काफी समय हो गया है। मैंने भी उनके बातों का समर्थन किया और सशर्त जाने की अनुमति भारी मन से दी, फिर पक्का मिलेंगे। इस तरह पुराने बिछड़े दोस्तों का पुनर्मिलन हुआ।
