बाबुल का देश
बाबुल का देश


रेडियो में गाना बज रहा था।
"मैं तो भूल चली बाबुल का देश...पिया का घर प्यारा लगे...."जब भी मैं यह गाना सुनती हुँ तब तब मुझे इस महल नुमा बंगला और सारे ऐशो आराम को कहीं भूल कर यादों के झरोखों से बचपन के उस छोटे से घर की याद आती है। कुछ खास तो होगा ही उस घर में जो शादी के इतने सालों के बाद भी ज़हन में बसा हुआ है। अचानक मुझे एक आवाज़ आयी। पति पूछ रहे थे,"किस सोच में डूबी हो तुम?" क्या कहूँ उन्हे मैं? इस सोच के दरमियान कितनी सारी बातें है। और उन बातों के दरमियान कितनी सारी सोचे है। मैं उन्हें कैसे कहती की मुझे मेरे मायके के घर की य
ाद आ रही है। क्योंकि मुझे पता है वह इस बात पर फिर से मुझे मायके की गरीबी का ताना देते। मैने मंद मुस्कान से कहा,"आपके लिये चाय बना कर लाती हूँ।" और किचन की तरफ़ ठहरे कदमों से जाने लगी। उन्हें क्या अंदाज़ा होगा मेरे मन के समंदर में उठती लहरों का और कैसे अंदाजा होगा इन लहरों के हिसाब का? यह यादों का समंदर बस उफनता रहता है या फिर मंद पड़ा रहता है।
गाना ख़त्म हुआ। लगा की ये कवि कुछ भी लिखते रहते है। पिया का घर कितना भी प्यारा क्यों ना हो, चाहे सोने और हीरे का ही क्यों न बना हो कोई भी स्त्री बाबुल के देश को कहाँ भुला पाती है.....