अशोक टॉकिज
अशोक टॉकिज


सन् 97 या 98 रहा होगा ,कोई फ़िल्म लगी थी नक्सल समस्या पर ,नन्दिता दास की ,उस समय बड़ी चर्चित थी
प्लान ये बना कि घर से हम खाना खा के आएंगे और अपने नए मकान के कुछ विद्यार्थी किरायेदारों के साथ चलेंगे साढ़े नौ का आखिरी शो
सब कुछ तय प्लानिंग से चलता गया
मौसम बरसात का था तो जाते समय ही गड़गड़ाहट और बिजली चमक रही थी
पर पानी तब तक शुरू नही हुआ था
पहुँचे सिनेमा हाल
दस बीस ऐसे ही हम जैसे
पहले तो लगा कम लोग ही हैं फ़िल्म चलायेगा भी या नही पर अपनी गणित जोड़ घटा के फायदा दिखा होगा तब ही फ़िल्म शुरू हुई
टिकट दस बारह रुपये ही था बॉलकनी का
बालकनी में सात आठ लोग
फ़िल्म शुरू हुई सामान्य सी नक्सल समस्या पर आधारित
कमजोर का शोषण मज़बूत द्वारा
डाइरेक्टर भी कोई कमजोर ही था फ़िल्म बोर करने लगी
इंटरवल हुआ
कस्बों के सिनेमाहाल हमेशा से साफ सफाई के मामले में बदतर ही होते हैं पर आज के पी वी आर के रिश्ते में बाबा दादा की ही तरह हैं ,
अशोक टाकीज का बालकनी का टॉयलेट भी कुछ ऐसा ही ,बालकनी के गेट से बहुत दूर अंधेरे में
और रात में और भयानक और दुर्गंध से भरा
वहां तक कोई जाता नही खास तौर पर रातों में
तो उसके बहुत पहले ही दीवारों पर निपट आते
इंटरवल के बाद हुई खास बात
जो गड़गड़ाहट आते समय थी बिजली की
वो पानी मे बदल गई
और क्या पानी बरस गया
एक दम मूसलाधार
थोड़ी देर में हॉल भी चूने लगा
हम सीट बदले
वहां भी थोड़ी देर में पानी
नीचे डी सी और फर्स्ट क्लास वाले आठ दस परेशान
फ़िल्म बची होगी आखिरी दस पन्द्रह मिनट की
तभी बिजली गुल
अंधेरा पानी की मूसलाधार आवाज भीतर बाहर
हम लोगों ने इंतजार किया पर कोई कहीँ भी जनरेटर चलने की कोई कहीं प्रक्रिया नही हुई
कम लोग चिल्लम चिल्ली और गालियां भी नही दे पाते ये काम भी भीड़ में ही होता है तब समझ आया
दस मिनट बाद एक आदमी आया
दरवाजे बंद करने लगा
किसी ने पूछा
ई का हो फ़िल्म त खत्म ना भइल काहे बन्द करा ताड़ा दरवाजा
वो बोला
ए भाई दस बारह लोगन खातिर जनरेटर ना न चली
कोई बोला
और पिक्चरवा ?
अरे उ आखिर में हीरोइनवा गोली मार दे तिया !
ये लाइन हम कभी न भूल पाएंगे किसी फिल्म का एक लाइन का क्लाइमेक्स जो सिर्फ शब्दो से बता के फ़िल्म पूरी हो गई हम सबकी
बाहर निकले इस अनुभव के साथ
टाकीज से राजमंगल पांडेय के घर तक घुटने तक पानी
खैर घर पहुँचे
बस एक लाइन याद आती रही रात भर
अरे उ आखिर में हीरोइनवा गोली मार दे तिया !