अजब ग़जब दोस्ती

अजब ग़जब दोस्ती

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हमारी कॉलोनी के सामने एक छोटा सा पार्क है सब लोगों के टहलने के लिए जिसमें बेंच भी लगे हुए हैं। मैं जब सुबह सैर करने जाती हूं तो रोज़ ही एक बेंच पर रमेश जी और प्रणव जी को बैठे देखती हूं। दोनों वहां बैठकर अखबार पढ़ रहे होते हैं। 

मुझे सैर करते लगभग एक साल हो गया था और मैंने आज तक उन्हें आपस में कभी बात करते नहीं देखा था। बड़ी हैरानी होती थी मुझे उन्हें देखकर कि वो इकट्ठे बैठकर भी आपस में बात क्यों नहीं करते। मुझे ही क्या, पूरी कॉलोनी के लोग और उनके खुद परिवार वाले भी उन्हें देख कर हैरान रहते हैं लेकिन उन दोनों पर कोई असर नहीं होता। वो रोज़ सुबह वहीं बैठकर अखबार पढ़ते हैं और फिर चुपचाप उठकर अपने घर वापिस आ जाते हैं।


प्रणव जी का बड़ा बेटा मुंबई नौकरी करता था। एक बार जब उसे छुट्टियाँ नहीं मिल पा रही थी तो उसने अपने मम्मी पापा को ज़बरदस्ती अपने पास दस पंद्रह दिनों के लिए बुला लिया। प्रणव जी जाना नहीं चाह रहे थे पर बीवी और बेटे के सामने उनकी एक नहीं चली।

लेकिन प्रणव जी के जाने के बाद तो रमेश जी बड़े अजीब तरह से व्यवहार करने लगे। ज्यादा बोलते तो वो पहले भी नहीं थे लेकिन अब तो ऐसे लगता था कि जैसे उन पर कोई दुखों का पहाड़ टूटा हो। और तो और, पहले जिस अखबार को पढ़ने में वो दो घंटे लगाते थे, वो अब दस मिनट में पढ़ कर ही घर को लौट जाते थे। मुझे लगा शायद उनकी तबियत कुछ खराब है।


पांचवे दिन जब मैं सैर करने पहुंची तो देखा प्रणव जी भी सामने से आ रहे हैं पर वो तो दस पन्द्रह दिन के लिए गए थे ना, फिर क्यों इतनी जल्दी वापिस आए।

तभी दुनिया का आठवां अजूबा देखा मैंने। जैसे ही प्रणव जी रमेश जी के सामने पहुंचे, रमेश जी बेंच से खड़े होकर उनके गले लग गए। दोनों ने एक दूसरे को दस मिनट तक गले लगाए रखा और दोनों की ही आँखों के कोर गीले थे। फिर वो दोनो हमेशा की तरह ही बैठ कर अखबार पढ़ने लगे, हां बिल्कुल, बग़ैर आपस में बात किए।


अब मुझे उनकी अजब ग़जब सी दोस्ती समझ आई जिसमें इन्हे एक दूसरे का साथ ही काफी था, बातों की जरूरत नहीं। प्रणव जी इसीलिए अपने बेटे के पास नहीं टिक पाए और रमेश जी उनके बिना बीमार से लगे। मुश्किल से मिलते हैं ऐसे दोस्त और ऐसी दोस्ती।



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