आवारगी
आवारगी
गुजार कर शराफ़त की जिंदगी शोहरत खूब पाई । बटोरा ढेरों मान सम्मान और एक मर्यादित पहचान ।
जब पहुंची जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर , तब शराफ़त की जिंदगी पर थोड़ा पछताई काश .... काश के मिल जाए एक मौका करे हम थोड़ी सी आवारगी .......देर रात को चल पड़ूं सुनसान विरान सड़क पर दूर .... दूर .... बहुत दूर । मिल जाए कोई बरगद का पेड़ और झुला दे कोई झुला मुझे । ऊंची-ऊंची पेंगे मारूं
थककर फिर चल पड़ूं किसी ढाबे की ओर । सांकल खटका कर जगा दूं ढाबे वाले को मगर बनाऊं खुद तीन कप तंदूरी चाय । पीकर लौट चलूं अपने घर की ओर । पीछे पड़ जाए सड़क के कुत्ते मैं डर जाऊं चीखने चिल्लाने लगूं तभी अचानक से कूद कर बचा ले मुझे कोई । पुरानी हिंदी फिल्मों के हीरो की तरह कोई हीरो । सिमट कर उनके आगोश में संभल जाऊं ....। बस इतनी सी आवारगी कर लूं । बेख्याली में ही सही देख लूं एक ख्वाब खुशनुमा सा ..........।
अक्सर बेख्याली में बस यही ख्याल आता है कि काश कर ली होती थोड़ी सी आवारगी उनके साथ ..... जिनकी यादों में आज भी बहकने लगती हूं और कल्पनाओं में पा लेती हूं उनका साथ । अपने हाथों में उनका हाथ और दूर .... बहुत.... दूर ....... तक निकल जाती हूं । जाड़े की सर्दीलि रातों में घनघोर कुहासे के बीच चलती हुई चली जाती हूं । मिल जाता है गोल-गप्पे वाली की दुकान और दोनों खूब मज़े से खाने लगते हैं गोलगप्पे और अचानक से सरक जाता है नाक पर चढ़ जाता है गोल-गप्पे का पानी थोड़ा सा तड़पती हूं मैं और वो ज्यादा बेचैन होकर गोलगप्पे का प्लेट फेंक कर मेरे सर पर हाथ फिराने लगते हैं ..... मुझे बहुत आनन्द आता है उनका स्पर्श पाकर । चेहरे पर शरारती मुस्कान आती है और उनका तेवर बदल जाता है । उन्हें यह बिल्कुल पसंद नहीं कि मैं महसूस करूं उनका प्रेम और किसी तरह यह जाहिर करूं । इसलिए बिदक जाते हैं मेरे आंखों में खुद के लिए कोई भी प्रेम भाव .... देखकर । झट से दूर होकर अजनबी बन जाते हैं । यही अनोखा अंदाज तो मुझे मार डाला .... वरना मुझे चाहने वाले और भी कुछ खास लोग हैं लेकिन मुझे तो यही करेला बेहद पसंद हैं जो नीम चढ़ा हुआ है । जीवन से निकल जाने के बाद भी ख्यालों , ख्वाबों और कल्पनाओं में विराजमान हैं यथावत .....। न जाने कैसे बाकी रह गई है कुछ ख्वाहिशें बरसों साथ-साथ रहने के बाद भी उन्हीं को तलाशती रहती हूं । रात के अंधेरे में , दिन के उजाले में ,घनघोर विरानी में , हजारों की महफ़िल में और आसमान के तारों में ........ । हजारों मुलाकातें हुईं हैं मगर फिर भी कुछ बाकी बाकी सा लगता है । उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंच कर मेरी आखिरी ख्वाहिश वही तुम हो जो मेरी पहली चाहत थें । मेरे जीवन का वह पहला पुरुष जिसने दो गज की दूरी से ही अपने दो नयनों से दिल की धड़कनें बढ़ा दी थी और भर दिया था मेरे आंखों में एक सपना जिसके पिछे बढ़ती रही एक मुश्किल सफ़र पर तन्हा ।
पा लिया जब जिंदगी में वह सब कुछ जिसकी कामना थी तब भी बाकी रह गये थोड़े से तुम और तुम्हारे संग आवारगी करने की चाहत थोड़ी सी चाहत .... । छुप छुप कर बिन बताए किसी सिनेमा हॉल में बैठकर देखूं कोई फिल्म हरि भाई की ( संजीव कुमार ) और लूं एक सीप झागदार कॉफी की । और कभी चल पड़ूं किसी पहाड़ पर जहां से ज़ोर ज़ोर से पुकारूं तुम्हें ।
