आशिक़ी नब्बे की!
आशिक़ी नब्बे की!


नब्बे के दशक के आशिक डरपोक थे ,घबराते थे बहुत हिम्मत कर के दिल की बात कह जाते थे ,पहले दोस्तों को फिर चिट्ठियों में लिख जाते थे ,किताबों में रखी चिट्ठियां कभी कभार ही सही पते पर जाती थीं, कोई पुल दो किनारों को जोड़े ऐसी सखी सहेली खोजी जाती थी ,फिर चिट्ठियां आती जाती थी मिलना जुलना भी ऐसे ही होता था कि साथ एक अपना कोई दोस्त जरूर होता था ,शायद एक दो की मोहब्बत ही अंजाम तक पहुचीं हो प्यार किया हो जिससे साथ अभी भी हो जीवन साथी की तरह ,वरना सब की मोहब्बत कॉलेज की चारदीवारी से बाहर आ न पायी ।इस व्हाट्सअप और फेसबुक की जेनेरेशन से कोसों दूर,तब से अब का समय बदल गया ।
पर एक बात बड़े गर्व की है नब्बे के दौर का आशिक सच्चा आशिक़ था ,प्यार को प्यार की तरह ही करता था ,भले डरपोक कह ले कोई पर चरित्र का ऊंचा था ।
प्यार भी पवित्रता से करता वासना से कोसो दूर ,हवस का पुजारी नही रंजीत सा,
जगजीत सिंह की गज़लों सा ,आर डी बर्मन के गानों सा ,नब्बे के दशक के आशिक़!