ज़ख्म
ज़ख्म

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वो जो हर बात पे ही गर्म खून माँगते हैं
सुना है दिलों में कबूतरों का शौक पालते हैं
दिन गुजरता नहीं, शाम ढलती ही नहीं
सूरज और चाँद का भी ज़ख्म करीने से सालते हैं
वर्तमान और अतीत को गहरी नींद में सुलाकर
भविष्य की ज़ुल्फें कायदे से हर रोज़ सँवारते हैं
महलों में अपनी तमाम आदतें बिगाड़कर
गरीब की झोपड़ी में रोटी खाकर रात गुजारते हैं
वायदों में हरेक के हक़ में घर दिखाकर
रात के अँधेरे में ज़िन्दा बस्तियाँ उजाड़ते हैं।।