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Samar Pradeep

Others

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Samar Pradeep

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ज़िंदगी

ज़िंदगी

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ज़िंदगी ना जाने क्या समझा रही है  

ग़ालिबन जीना मुझे सीखा रही है

 

बदहवासी में जो लम्हें खो दिए थे  

ज़िंदगी वो अब मुझे लौटा रही है  


मैं कि मिलने को मरा ही जा रहा हूँ  

इक वो है जो खत मिरे ठुकरा रही है 


कुछ दरिंदो की मेहरबानी के अब वो 

हम सभी से ही बहुत घबरा रही है।



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