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ज़िन्दगी और मौत

ज़िन्दगी और मौत

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दिखने लगे रेखाएँ चेहरे पे झाँक के,

समझिये पड़ाव जिंदगी के पार हो रहे।

 

 झुकती हुई कमर ने उठाये बोझ ख़ूब,

 अपनी कमर ही मुझपर, अब भार हो रहे।

 

 चुनते हैं वो समान बढ़ के मौत के लिए,

 बेड़ियों के खुलने के आसार हो रहे।

 

 वो तो ख़ुदा सा बन कर, बरसाता नूर है,

 अपने लिपट के उनसे ,ज़ार ज़ार रो रहे।

 

जिंदगी और मौत दो किनारों का है नाम

इस पार जी लिया अब उस पार हो रहे।


हसरत थी इक झलक की, उस ऊर्जावान की,

लो ज़िद हुई है पूरी, दीदार हो रहे।

 

 


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