ये .. रिश्ते
ये .. रिश्ते
सूखे पत्तों से हो गए हैं रिश्ते
जाने कब बिछड़ जाएँ,डालियों से
हवा के हल्के झोंकों से।
तभी तो ,
बिगड़ते मौसमों से डरता हूँ,
आँधियाँ ना आए,
ये दुआ करता हूँ ।
मगर कब हुआ है ऐसा,
कि जो चाहो वो हो जाए।
बहुत कम ही होता है,कि
भटकती कश्ती को ,अचानक
कोई माँझी मिल जाए ।
और एक दिन तूफ़ान
जब अपने ज़ोर पर था।
हो ही गया आख़िर जिसका
डर,हमेशा से ही था।
आपसी कड़वाहट अपना
काम कर गई।
नफ़रत की आँधी आँखों में
धूल भर गई।
चाह कर भी कुछ किसी को
ना दिखाई दे सका ।
अलग हो गया था पत्ता
अपने परिवार से।
दूर गिरा था जाकर वो तो
ज़िंदगी के थपेड़ों से।
अंतत: वह मिट्टी में विलीन हो गया ।
पेड़ खड़ा था बुत बनकर
उसदिन चुपचाप वीरानें में।
ऐसे ही बिखर जाते हैं रिश्ते भी
उन सूखे पत्तों से,
जो कभी थे लहलहाते
झूमते थे सावन में।
