ये मुख ढके मुखौटे
ये मुख ढके मुखौटे
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बंद पड़े काम धाम।
जीवन का चक्र जाम।
सुनसान डर पाते,
ये कस्बे शहर ग्राम।
खाने के पीने के,
घर घर में हैं टोटे।
छिपा छिपा फिरते मुख,
ये मुख ढके मुखौटे।
जाने कब होय अंत।
चुप मुल्ला चुप महंत।
पतझड़ कब बीतेगा,
छायेगा कब बसंत।
जायेंगे जाने कब,
आये हैं दिन खोटे।
छिपा छिपा फिरते मुख,
ये मुख ढके मुखौटे।
बाहर है बीमारी,
घर में है लाचारी।
धरती के धीरज से,
कुछ तो है जो भारी।
समय शकुनि पीट गया,
मानव की सब गोटें।
