ये ढलती हुई शाम ..
ये ढलती हुई शाम ..
झरोखे से बाहर
निहारते हुए
डूबते सूरज को देखकर
पिघलती उसकी लालिमा में
सबकुछ कितना सलोना लगता है।
पंक्षियों का लौटना
घोंसलों में अपने - अपने
जीवन राग बिखेरता है।
धान की बालियों पर
ढलती हुई थकी शाम में
निखरता सौन्दर्य दीखता है।
लौटते किनारे पर वो नाविक
पानी पर तैरते सिन्दूरी रंग को
अगली सुबह के लिए समेटता है।
अंधेरे के आग़ाज पर
बढ़ाती रात्रि के कदम पर
प्रकृति नए रूप में उभरता है।
ये घटती रौशनी हर तरफ़
याद सबको दिलाती है
है जो आशियां तुम्हारा
इंतज़ार की राहं में दीए जलाता है।
