यादें
यादें
याद आता है मुझको अपना गांव
वो धूप में खेलना, दौड़ना नंगे पांव।
थक कर चूर होने पर होता था एक ही ठांव
भाती थी बस फिर बरगद की शीतल छांव।
बरगद की छांव तले ही लगती थी चौपाल
बैठकर वहां पता चल जाता था सबका हाल।
वट की छांव तले सत्यवान ने पाया था नवजीवन ऐसा है विश्वास,
पूजती हैं सुहागिन इसलिए इसको र
खकर बड़मावस का उपवास।
बरगद की छांव तले दावत खाना भी है याद
अब होटल में बैठकर खाने में भी नहीं आता वो स्वाद।
शहर में रहते मुश्किल से मिलती है बरगद की छांव
देखता हूं जब कहीं बरगद,ठहर जाते हैं मेरे पांव।
