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कल्पना 'खूबसूरत ख़याल'

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कल्पना 'खूबसूरत ख़याल'

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वसन्त

वसन्त

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अब तुम्हारे स्वागत को

धरती नहीं आतुर रहती

न पंछी गीत गाते हैं

नदियां भी अब कल-कल

नहीं करती।


किसी पेड़ से गिरते

सूखे पत्ते की तरह

झड़ गयी हैं

उम्मीदें इन सबकी।


अलग होता समय

देखता है

कितना स्वार्थी हो

गया है ये मनुष्य

जिनके लिये तुम आते हो

उसके पास समय नहीं।



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