वो मर्द नहीं होता
वो मर्द नहीं होता
जिस मर्द को दर्द नहीं होता
वो असल में मर्द ही नहीं होता
टूटते ही जुड़ने की तो बात है,
वरना कोई फ़र्द ही नहीं होता।
हर ग़म पर आंसू आते तो हैं
पर सब छुपा लेता है वो,
तकलीफ़ गहरी हो जितनी
खुद को हंसा लेता है वो।
रोता नहीं है क्योंकि
दुनिया को कमज़ोर लगेगा,
मर्द ही तो मुश्किलों में भी
रुबाब कठोर रखेगा।
अपने सामाजिक तर्ज से ही तो
ज़माने पर गर्द नहीं होता,
जिस मर्द को दर्द नहीं होता
वो असल में मर्द ही नहीं होता।
बचपन से ही सिखाया गया
पुरुषों को लड़की सा ना होना,
लड़के हो भई गुलाबी रंग
का मत रखो खिलौना।
और कोनो में अंधेरो से
डर भी कैसे सकते हो
तुम रक्षक हो, हीरो हो
मर भी कैसे सकते हो।
मरना, ना लड़ना तो नामुमकिन है
क्योंकि उनका खून ज़र्द नहीं होता,
जिस मर्द को दर्द नहीं होता
वो असल में मर्द ही नहीं होता।
पर मुनसिफ़ सा होना तो पड़ेगा ही
मर्द को ज़रूरी लड़ना पड़ेगा ही,
सरल कमज़ोर होना विकल्प नहीं है
सूरज की गहम में तपना पड़ेगा ही।
पर औरतों को हमसे डरना क्यों भला
लड़कियो को चेहरे पर मरना क्यों भला,
क्या दिखना ज़रूरी है हर दफ़ा खूबसूरत
मर्द को सही से चीजों को करना क्यों भला।
और हर इधर उधर हरेक छेत्र में
सर्वगुण सम्पन्न वो वर्ध नहीं होता,
जिस मर्द को दर्द नहीं होता
वो असल में मर्द ही नहीं होता।
