वो मैडम मुझे "कश्मीर" लगीं
वो मैडम मुझे "कश्मीर" लगीं
सो होता यूँ था कि
वो कक्षा में रोज जब आती थी
मैं उनको देख सकुचाती थी
पर फिर भी उनकी आँखों में
कभी नहीं दिखे घृणा के फूल
वो कोमल मन से मुझे
कुछ कहना चाहती
पर मेरे नादान मन में अनेकों
विचार पनप जाते
वो ज़रा दयालु सी लगी
क्योंकि उनके तीव्र भौह
मुझे किसी परवाह की
लकीर लगती
वो मुझसे कभी कुछ न कहती
पर में जब-जब मिलती
वो मुझे सन्नाटों भरी निगाहों
से यूँ ताकती
की दो चपेट मेरे कोमल
गालों पर लगने को ही है।
सो कारवां यूँ ही चलता रहा
पनपती रहीं संवेदनाएँ
आघात तो नहीं करती थी
पर एक संदेह सा मन में
बना रहता
अकस्मात, एक रोज़
मेरी तबियत में कुछ
तकलीफ़ सी लगी
इम्तिहान उस दिन का
मुझे कुछ समझ न आया
जब मेरी सखी ने मेरी तकलीफ़ की
याचना उन मैडम जी से की
वो घबराई सी मेरी ओर बढ़ी
मेरे समीप आते ही
पूछा भी नहीं कि मुझे क्या हुआ?
वो ज्वर की सीमा को नापते
मेरे मस्तक की गर्माहट को
अपने हाथों से भाँपने लगी
वो कुछ गीले रुमाल से मेरे
मस्तक की रेखाओं को सहलाने लगीं
पकड़ कर हाथ मेरा
शीतकुलन की ओर धकाने लगीं
उस स्पर्श में कुछ अपनापन था
उन्होंने नहीं बाँधे प्रश्नों के मेड़
वो बार-बार मुझे देखती
निहारती, चुपके से की पीड़ा का
कोई तार तो नहीं छिड़ा
वो क़रीबी तो नहीं थीं
तो फ़िर ये चिंतन कैसा?
सच कहूँ तो,
वो मैडम मुझें "कश्मीर" लगीं
जैसे सफ़ेद बर्फ को देख
मन बावरा हो जाता है,
जैसे वहाँ की हरियाली
प्रेरणा देती समस्त प्रकृति को
जैसे शीतल वायु छू जाती है
आँखों की निर्मलता
जैसे बर्फ की सफेद चादर और
आसमान के मध्य कोई दरार
नहीं दिखती
जैसे उन वादियों में खो जाने
को मन करता हो
वो मेरे जीवन में किसी नदी
की तरह प्रवाह करतीं
मेरे मन को सदैव हर्ष से सींचती
वो मेरे जीवन में किसी
"प्रेयसी" से अल्प नहीं
सच कहूँ तो ,
वो मैडम मुझें "कश्मीर" लगीं