वासंतिक कुंडलिया छंद
वासंतिक कुंडलिया छंद
भँवरे गुंजन कर रहे, आया है मधुमास।
उपवन की शोभा बने, टेसू और पलाश।
टेसू और पलाश, संग में चंपा बेला।
गेंदा और गुलाब, सजा रंगों का मेला।
फुलवारी अरु बाग, बसंती रंग में सँवरे।
पी कर नव मकरंद, गुँजाते बगिया भँवरे।।
पी कर जब मकरंद को, भ्रमर बैठते फूल।
वह पराग को छोड़ते, मौसम के अनुकूल।
मौसम के अनुकूल, खिलाते पुष्प रँगीले।
भाँति-भाँति के फूल, सजाते बाग सजीले।
बढ़ता मन अनुराग, खुशी मिलती है जी कर।
मन से हटा विषाद, छटा नैनों से पी कर।।
भाता है सबको सदा, बासंती मधुमास।
शक्ति ठंड की घट रही, गर्मी का आभास।
गर्मी का आभास, ऊर्जा भरता तन में।
नव सुखमय अहसास, जगाती यह ऋतु मन में।
मन में भरे सुवास, शरद से टूटे नाता।
प्रकृति रूप यह खास, सभी के मन को भाता।।
