वारिस
वारिस
बिन बादलों के कभी बारिश नहीं होती,
ज़िंदगी ख़ुशियों से भरी ख़ालिस नहीं होती,
कैसे कह दें हम ये अपने मन को मारकर,
कि ग़ज़ल लिखने की हमारी ख़्वाहिश नहीं होती
चली जाती हैं जब ख़ुशियाँ दामन छुड़ा कर,
सारी हसरतों को फूंक कर धूल में उड़ा कर,
साफ दिख जाती है दीवार पर लिखी इबारत,
कैसे कह दें कि ये किस्मत की साज़िश नहीं होती
रुख्सत होती हैं जब सांसें और धड़कन,
बढ़ती ही जाती है फिर मन की उलझन,
अपनों से बिछड़ जाने का ग़म हम कैसे भुलाए,
कि तन्हाई तो मिलन की वारिस नहीं होती