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Meera Kannaujiya

Others

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Meera Kannaujiya

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उजड़ रहा है लोगों का घर

उजड़ रहा है लोगों का घर

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उजड़ रहा है लोगों का घर विश्राम अभी बाक़ी है,

ये उड़ा अंबर को पंछी, चोंच में तृण को दबाये;

इस महाकाल महामारी में कुछ काम अभी बाक़ी है।

उजड़ रहा है लोगों का घर विश्राम अभी बाक़ी है।


शहर में शोर भागो-भागो,

भोर में गुंजार नभचरों की जागो-जागो;

सब में भरा है डर,इस दैत्य दानव का;

पर प्रकृति में तरु,झरनों का,नन्ही सी कलियों का चटकना अभी बाक़ी है।

उजड़ रहा है लोगों का घर विश्राम अभी बाक़ी है।


सब डरे सहमें से,अंधकार की जड़ों से भयभीत विचलित से;

मगर कैसे बताऊँ इन्हें,

पौ फटते ही हाथ में सूरज लिए,

उस भंयकर वीर का आ धमकना बाक़ी है।

उजड़ रहा है लोगों का घर विश्राम अभी बाक़ी है।


हर जगह काली घटा,

तमस से रग-रग डरा,

तिमिर को मिटा के उस दयानिधि का अजोर करना बाक़ी है।

उजड़ रहा है लोगों का घर विश्राम अभी बाक़ी है।


छट जायेगा अँधेरा,हिल जायेंगीं अंधकार की जड़ें;

उस सर्वशक्तिमान ईश का द्युति को चमकाना बाक़ी है।

उजड़ रहा है लोगों का घर विश्राम अभी बाक़ी है।


फिर होगी गाँवों में चहल-पहल,

शहरों में ट्रैफिक,दुकानों में चाय की चिस्कियों पर अख़बार पढ़ते बुजुर्गों की भीड़;

इस ध्वस्त,वीरान,सुनसान,उजाड़ नगरों को बसाने वो सृजनहार आना बाक़ी है।

उजड़ रहा है लोगों का घर विश्राम अभी बाक़ी है।


सुनी हुई कोख कितनी,शून्य हुआ श्रृंगार कितना;

बहुत बह चुके नयनजल,

अब इन टसुओं का हिसाब आना बाक़ी है;

उस सुख,अमन,सुक़ून,शांति का वरदान अभी बाक़ी है।

उजड़ रहा है लोगों का घर विश्राम अभी बाक़ी है।   धन्यवाद!🙏


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