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ritesh deo

Abstract

4  

ritesh deo

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तू ऐ.. ज़िन्दगी

तू ऐ.. ज़िन्दगी

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ऐ ज़िन्दगी.. तू एक,

पर तेरे रंग अनेक।


कितने रंग बदलती है 

ज़िन्दगी..!

कभी फूलों-सी सजी 

अधरों पर,

तो कभी अश्कों को 

समेटे पलकों पर,

अजब रंग है तेरे,

कितने रूप बदलती है !


जैसे हर रोज..

इक नया अध्याय.. 

लिखती है ज़िन्दगी।


ज़िन्दगी,

पेड़ पर लगी पत्ती !


पीला पड़ना.. सूखना,

फिर झड़ जाना..

और झड़ कर मिट्टी बनना..


क्या मात्र...

यही नियति है तेरी..

ऐ ज़िन्दगी।


फूल पर बैठी तितली-सी, 

छूते ही उड़ जायेगी..

रंग लगे रह जायेंगे,

उंगलियों पर शेष !


जादू-सा जगाती है !

कितनी मनमोहक है

तू ऐ.. ज़िन्दगी।


ज़िन्दगी !

बड़ी तमन्ना थी

तुम्हारे क़रीब आने की

छूने की..सहलाने की,पर

जैसे ही छुआ तुम्हें..

तुम छुई-मुई हो गयी !


कितनी मृदु-सुकुमार सी है,

तू ऐ..जिंदगी।


इक ऐसा लम्हा है ज़िन्दगी 

कब ठहर जाये क्या पता..

ठहर के ऐसा रूके कि -

फिर चलने का नाम न ले !


बड़ी ही बेमुरब्बत है 

तू ऐ.. ज़िन्दगी।


महज़ इक खिलौना है

किसी के हाथ का..

कब तोड़ दे वह -

क्या भरोसा !


शाश्वत नहीं,क्षणभंगुर है !

तू ऐ..ज़िन्दगी।


ज़िन्दगी..

कुम्हार के चाक पर लगा

मिट्टी का लौंदा !

ज़रा-सा हिल जाने पर,

भरभरा कर गिर पड़ती है..!


रेत के घरौंदे-सी..है

तू ऐ.. ज़िन्दगी।


कभी किसी से 

कोई गिला न रखना,

रिश्ते बडे नाज़ुक होते हैं,

सहेज कर रखना..

कब थम जाये, 

छोटा-सा सफ़र है..

ज़िन्दगी !


सच कहूँ तो..

बड़ी ही बेवफ़ा है,

तू ऐ..ज़िन्दगी।


कभी अपनी-सी,

तो कभी बेगानी-सी..

कभी सपना तो,

कभी हक़ीक़त-सी !

कठपुतली-सा 

दिनभर नचाती..


ऐ ज़िन्दगी ! 

तू ही बता..

क्यूँ रही मेरे लिए 

हमेशा ही..

इक अबूझ पहेली-सी।


चाहा बहुत,

दिल खोल के..

हँसे-खिलखिलाएँ !


पर न जाने क्यूँ..


दबी-छुपी गुमनाम-सी,

शर्मायी - सकुचायी-सी..

रही सदा ही,

अधखिली-अनजानी-सी..

तू क्यूँ ऐ..ज़िन्दगी।


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