तलाशती नज़रें......
तलाशती नज़रें......
ऐसा लगता था माँ कुछ ढूँढती रहती थी ।
अपने चेहरे की झुर्रियों में,हाथों की लकीरों में,
बालों की सफेदी में ,पैरों की फटी बिवाई में।
माँ सदा कुछ ढूँढती रहती थी......
बच्चों की मुस्कान में,पति की आवाज के ज़ोर में,
मसालों के डिब्बों में, रसोई के बर्तनों के शोर में।
माँ सदा कुछ ढूँढती रहती थी।
सर्दी की गुनगुनी धूप में ,बसंत की मोहक पुरवाई में,
पतझड़ के सूनेपन में, सावन की रिमझिम बूँदों में।
माँ सदा कुछ ढूँढती रहती थी
अब जब मैं खुद माँ बनी तो मेरी आँखें भी
कुछ ढूँढती रहती हैं उन्हीं सब चीजों में.....
हाँ!आज समझ आया,माँ सदा अपना अस्तित्व,
अपनी मुस्कान,अपनी पहचान ढूँढती रहती थी!
