तब और अब
तब और अब
पहले उंगलियां खुद-ब-खुद चलती थीं
दिमाग को दौड़ाती थीं।
पर कभी थकती ही नहीं थीं।
विषयों का अकाल नहीं था
सोच में ठहराव नहीं था
दिन ही दिन का राज था
रात का तो नहीं कोई काम था।
अब परिस्थितियां विपरीत हैं,
उंगलियां रुक रुक कर चलती हैं
विचार आ गए तो लिख देती हैं,
नहीं तो छोड़ देती हैं।
बुद्धि पर लगे ताले खोल-खोल कर बढ़ती हैं
दस्तक पर दस्तक देती हैं
सोच के लिए विषय कुरेदती हैं
फिर कहीं जाकर एक किस्सा लिखती हैं।
जो कविता का एक हिस्सा बनती है
अनुभव की परतें उधेड़ती है
अच्छे बुरे का एहसास दिलाती है।
और एक तो नहीं 10 दिन में एक कविता बन ही जाती है।
अनुभव तो बहुत है ।
नदी में बहाव लेकिन कम है।
क्या राहों
को बदलने की मांग है?
या अनुभवों को सींचने की गुहार है ।
पानी के बुलबुलों सी बनती और बिगड़ती है।
रूह से आवाज नहीं आती है।
परछाई भी तो साथ नहीं निभाती है।
राख बन चुकी है या लपटें अभी बाकी है।
कोई संकेत भी तो नहीं कराती है।
उंगलियां है कि अब कलम भी नहीं पकड़ती है।
अनुभवों की स्याही है कि पन्ने नहीं रंगती है।
नाव है कि आगे नहीं बढ़ती है।
क्योंकि हौसलों की पतवार चलने से मना करती है ।
पंख भी है कि सिमटना चाहते हैं
जिंदगी है कि इठलाती है
खुद पर ही तंज कसती है
रफ्तार मध्धम है
अफसोस नहीं पर चाहत है।
खुद से गुफ्तगू ना होने से आहत है।