स्वंय की खोज
स्वंय की खोज
खुद को खोजती फिर रही हूं मैं
कभी सखियों में,
कभी साजन की अंखियों में।
आईने में जब अक्स
अपना निहारती हूं,
अपने ही विचारों में
अंतर्द्वंद पाती हूं।
मेरे अपने मेरा आईना है।
सखियों के आईने में,
मैं चंचला, इठलाती,
बलखाती बेला हूं।
तो मां की नज़रों में,
सौम्य ,शीतल ईश की कला हूं।
पति की भुजाओं में,
प्यास बुझाती मधुशाला हूं।
भाई की राखी में
स्नेह की तिजोरी हूं।
गुरूओं की शिक्षा से
बुझाती प्यास हूं।
पड़ोसियों के संगत में,
खिलखिलाती आस हूं।
मंच पर बिखेरती,
मुस्कुराहट की छाप हूं।
प्रतिस्पर्धा की भीड़ में
दौड़ने का साहस हूं।
आखिर मैं क्या हूं
अभिमानी नहीं सयानी हूं
मैं नारी स्वाभिमानी हूं।