सुबह के भूले
सुबह के भूले
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सुबह के भूले,जब घर लौटे
घर तो था दीवार नहीं थी
अंधेरा फिर भी रौशन था
अंधेरे की चाह नहीं थी।
मरघट की उठती लपटों को,
शबनम की बूंदों ने घेरा
कोलाहल की तेज लहर पर
खामोशी ने डाला डेरा,
जीने वाले जब जीवन के द्वार पे आये,
जीवन तो था प्यास नहीं थी।
सन्नाटा बाहों में सिमटा ,
उजली उजली शाम हुई
शोलों ने भी फूल बिछाये,
चाहत ने एक आग लगायी,
लड़ने वाले जब जंगे मैदान में आये,
जंग तो थी,दरकार नहीं थी।
दरक उठे काले पहाड़ भी
अंतस्थल से झरने फूटे,
पथ निहारती रह गयीं सदियां,
दुःस्वप्नों के सपने टूटे,
मिलने वाले जब मिल बैठे,
प्यार तो था कोई रीति नही थी।
