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Nivish kumar Singh

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Nivish kumar Singh

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सुबह का सवेरा

सुबह का सवेरा

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आज सुबह सवेरे उठ कर देखा

रोज देर उठ मैं क्या-क्या हूँ खोता। 


वाह क्या सुंदर ठंडी पवन हवा चलती

मानो अपने जोर के प्रवाह से 

बाँसुरी बजाती। 

सूरज से आती रसीली धूप

मन को खूब सुहाता। 

थिरक-थिरक सभी चिड़िया 

मधुर आवाज़ों में है गाती। 

हवा के झोंके से माटी 

खूब गुलाल उड़ाती। 


दौड़, आसन, प्रणयाम, व्यायाम

मानव अपने ध्यान में लीन

कहीं चर्चा, कहीं तमाशा

मानव का जोर जोर ठहाका। 

इस वक़्त सबसे ज्यादा भीड़

मैंने चाय दुकानों पर देखी। 

मजदूर अपना औजार लिए, 

महिला छोटा कलश और अगरबत्ती लिए, 

बच्चे अपना बस्ता लाद संभाले। 

सब अपने कामों पर जाते मिले। 

बच्चे का हँसता-रोता सकल, 

मुझे बहुत ही भावुक किया। 


न जाने रोज सुबह सवेरे, 

मैं क्या-क्या खोता हूँ । 


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