संस्कारों की गरिमा
संस्कारों की गरिमा
संस्कारों की गरिमा, आज कहे पुकार,
संस्कार अब भूल गये, जीना है बेकार,
जाने कहां सोये वो गरिमा के रखवाले,
पूरे जगत में मच गया, अब हा-हाकार।
संस्कारों के चलते, देश जहां में जानते हैं,
श्रवण कुमार, राम को पितृभक्त मानते हैं,
नालंदा और तक्षशिला, होते थे शिक्षा केंद्र,
भारत की संस्कृति को खूब पहचानते हैं।
बोलचाल और व्यवहार था बड़ा न्यारा,
इसलिये भारत देश, जन-जन को प्यारा,
दूध, दही की नदी बही, गबरू होते लोग,
काश! वो संस्कृति लौट के आये दुबारा।
गुरुदेव व साधु संत होते थे ज्ञानी ध्यानी,
सभ्य, सुविचारों से संस्कृति देश की जानी,
जाने कहां खो गई देश की संस्कृति अब,
राह चलते भी कर रहे लोग आज शैतानी।
सादा खानपान होता, वीरों का था ये देश,
भरत जैसे भाई हुये, आज भी हैं अवशेष,
भाई-भाई में प्यार था, कल्पनातीत हमारा,
सुन आज की संस्कृति, दिल को लगे ठेस।
मदर इंडिया मिलती थी, करती बेटी रक्षा,
गैर चलन देखा तो, बेटे को भी नहीं बख्शा,
आज सरेआम चौराहे होती आबरू नीलाम,
खुद घर के लोग ही बदलना चाहे घर नक्शा।
धर्म कर्म पर चलते थे, पापों से रहते थे दूर,
शांत स्वभाव मिलता था, कतई ना था गरूर,
आज संस्कृति को पापों से ढकना चाहते जन,
अधर्म, अहित, अत्याचारों से जन खो गया नूर।
आज दुहाई दे रही है, पड़ी धरा पर संस्कृति,
बच्चे, बूढ़े, युवा सभी की खो गई अब संस्कृति,
संस्कृति की गरिमा जहां है, देश नाम कमाएगा,
वरना फिर कल्कि अवतार, पुन: देश बचाएगा।
शर्म लिहाज घट गई, दुश्मनी पलती है दिल,
जिसे भी देखो नाच रहा, प्रकृति बनी है जटिल,
आंखें दिखाना सीख गये, आंखों में नहीं है शर्म,
व्यसनों में डूबे लोग, जी रहे हैं वो तिल तिल।।
