संक्रांति बनाम क्रांति
संक्रांति बनाम क्रांति
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थी उल्लासी लोगो में क्योंकि पर्व था संक्रांति का
किंतु ऐसा लग रहा था मानो पर्व है क्रांति का
थी रौनक हर दुकान में
थी मुस्कान हर मकान में
उबल रहा था देश का एक कोना
क्योंकि वहां संक्रांति नहीं क्रांति था
थी निराशा हर मकान में
थी अंधियारे हर गलियारे में
एक कौम से लबालब थी सड़क
चूंकि खरीदारी की थी महक
थी खुशियाँ हरेक के लालटो पे
चमक रहे थे चंदन हर एक के माथे पे
दुसरे कौम से थरथरा सी गई सड़क
क्योंकि आंधी थी क्रांति की
थे दहशत में लोग आधे
चारो ओर हो रहे थे आगजनी व नारे