शरम न आती !
शरम न आती !
शरम न आती ?
ज़रा सी मुसीबत क्या आन पड़ी
उठ भाग खड़े हुए।
बिखरे जीवन का वही तनाव
असमंजस समय की वही यातना
अप्रत्ययी आत्मविश्वास का वही झुकाव
ये रोज रोज के हैं
जानते हुए भी।
सब कुछ जानते हुए भी
आज बेचारे किस्मत ने थोड़ा सा
मात क्या दे दिया
तुम्हारे कमर टूट गये !
संसार का भार
अकेले उठाने लायक ये कंधे
अचानक ही बलहीन हो गये !
क्यों . . . ?
शरम न आती ?
जबकी कमर टूटे ये कंधा छूटे
भूख की आग मे जलना ही है,
प्यास की रेतोंं मे धसना ही है
ग़म के बाढ़ों पे बहना ही है,
जान कर,
ज़रा सी सुख के लिए
मरीचिका के छलावे में भागने लग गये।
शरम न आती ?
इतने तजुर्बे होने के बावजूद भी
तुम्हे बताना पड़ रहा है
कि तुम मुर्दे के समान हो !
तुम्हारे लिए सुख क्या, दुख क्या
दोनों एक बराबर हैं !
न जाने,
शरम क्यों न आती ?
अगर आती होती तो जिंदा नहीं होते ।
