Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत - २८३

श्रीमद्भागवत - २८३

4 mins
450


श्रीमद्भागवत - २८३ः सुभद्रा हरण और भगवान का मिथिलापुरी में राजा जनक और श्रुतदेव ब्राह्मण के घर एक समय जाना


राजा परीक्षित ने पूछा, भगवन

मेरे दादा अर्जुन ने कैसे

विवाह किया कृष्ण, बलराम की

बहन मेरी दादी सुभद्रा से।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

एक बार तीर्थ यात्रा के लिए

अर्जुन विचरण करते करते

प्रभासक्षेत्र पहुँच गए थे।


वहाँ उन्होंने देखा बलराम जी

विवाह दुर्योधन से करना चाहते

अपने छोटी बहन सुभद्रा का

पर सहमत ना कृष्ण हैं उनसे।


सुभद्रा को पाने की लालसा

थी अर्जुन के मन में पहले से

ब्राह्मण का वेश धरकर

द्वारका में पहुँच गए वे।


सुभद्रा को प्राप्त करने के लिए

वो रहे वहाँ चार महीने

बलराम आदि ने सम्मान किया उनका

जानते ना वो कि अर्जुन हैं वे।


आतिथ्य के लिए एक दिन

बलराम जी उन्हें घर ले आए

सत्कार किया त्रिदण्डी वेशधारी अर्जुन का

सुभद्रा को वहाँ देखा अर्जुन ने।


बड़े बड़े वीरों को भी

हरने वाला था सौंदर्य उनका

उनको पाने की आकांक्षा से

अर्जुन का मन क्षुब्ध हो गया।


दृढ़ निश्चय कर लिया उन्होंने

सुभद्रा को पत्नी बनाने का अपनी

सुभद्रा ने जब देखा कि

बहुत सुंदर हैं अर्जुन भी।


उन्होंने भी ये निश्चय कर लिया

अपना पति बनाने का उन्हें

मुस्कुराकर देखने लगीं उनको

समर्पित कर दिया अपना हृदय उन्हें।


अवसर देखने लगे अर्जुन अब

कैसे मैं हर ले जाऊँ इसे

एक दिन देखा उन्होंने कि

सुभद्रा जा रहीं देव दर्शन के लिए।


द्वारका के दुर्ग से बाहर निकलीं जब

तब वासुदेव और कृष्ण की अनुमति से

सुभद्रा जी का हरण कर लिया

वहाँ से महारथी अर्जुन ने।


जो सैनिक उन्हें रोकने आए

पीट पीट भगा दिया उनको

समाचार जब ये मिला तो

ग़ुस्सा आया बलराम जी को।


परंतु भगवान कृष्ण ने और

उनके सगे सम्बन्धियों ने

समझाया और पाँव पखारे

तब जाकर शांत हुए वे।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

विदेह की राजधानी मिथिला में

ऋतदेव नाम के एक

गृहस्थ ब्राह्मण निवास करते थे।


भगवान कृष्ण के परमभक्त वे

परम शान्त और  विरक्त थे

ग्रहस्थ आश्रम में रहते हुए भी

किसी प्रकार का उद्योग ना करते।


जो कुछ भी मिल जाता उनको

उसी से निर्वाह कर लेते

जितनी भी सामग्री मिल जाती

प्रारब्ध वश प्रतिदिन उन्हें।


उसी से सन्तुष्ट रहते वे

भगवान भक्ति में मगन थे रहते

अपने वर्णाश्रम अनुसार ही

धर्म पालन में तत्पर रहते थे।


परीक्षित, उस देश के राजा भी

ब्राह्मण की तरह ही भक्त थे

बहुलाश्व उनका नाम था

मैथिल नगरी के नरपति वे।


अहंकार ज़रा मात्र भी ना उनमें

कृष्ण के प्यारे भक्त दोनों ही

प्रसन्न होकर उन दोनों पर

एक दिन कृष्ण चल दिए उस नगरी।


ऋषी मुनि भी साथ में उनके

रास्ते में देशों के नर नारी जो

कृतज्ञ हुए कृष्ण दर्शन से

विदेह में फिर पहुँच गए वो।


श्री कृष्ण का दर्शन पाकर

नगरवासी सब आनंदित हुए

बहुलाश्व और श्रुतदेव ने उनके

प्रणाम किया था चरणों में।


दोनों ही समझ रहे कि कृष्ण

उनपर अनुग्रह करने को आए

कृष्ण को आमंत्रित किया था

एक साथ हाथ जोड़ दोनों ने।


दोनों की प्रार्थना स्वीकार की

दोनों को प्रसन्न करने के लिए

एक ही समय में पृथक पृथक

कृष्ण दोनों के घर पधारे।


कृष्ण को अपने सामने पाकर

हृदय भर आया विदेहराज का

भगवान के पाँव पखारे

और फिर उनकी की थी पूजा।


भोजन कर सब तृप्त हो गए जब

राजा बहुलाश्व ने कृष्ण को

अपनी गोद में बैठा लिया

स्तुति उनकी करने लगे वो।


“ प्रभो, आप सबके आत्मा

चरणकमलों का सदा स्मरण हम करते

हम लोगों को दर्शन देकर

कृतार्थ किया है आपने।


सब कुछ त्याग दिया जिन मुनियों ने

अपने आप को भी आप दे डालते उन्हें

पाप ताप सब शांत कर दे

आपका विशुद्ध यश ये।


नमस्कार करता मैं आपको

निवास कीजिए कुछ दिन हमारे यहाँ

आपके चरणों की धूल से

हमारा वंश पवित्र हो गया।


भगवान श्री कृष्ण ने तब

स्वीकार कर लिया उनकी प्रार्थना को

अगले कुछ दिन के लिए फिर

विदेहराज के पास रहे वो।


शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

श्री कृष्ण के आगमन पर जैसे

आनंदित हुए थे बहुलाश्व

श्रुतदेव भी आनंदित हुए वैसे।


कृष्ण को देख प्रेम विह्वल हो गए

अभिनंदन किया, पाँव पखारे

मनोरथ पूरे हो गए थे

उस समय पर उनके सारे।


हर्षित्ररेक में मतवाले हो रहे

कृष्ण और मुनियों की पूजा की उन्होंने

ऐसा समागम प्राप्त हुआ कैसे

मन ही मन वो ये सोचें।


“ गृहस्थी के अंधे कुएँ में गिरा हुआ

एक बड़ा अभागा हूँ मैं तो “

कृष्ण के चरणों का स्पर्श कर

उनसे ऐसा कहने लगे वो।


“प्रभो, आप तो पुरुषोत्तम हैं

आप की लीला का जो गान करें

हृदय शुद्ध हो जाता उनका

आप उनमें प्रकाशित हो जाते।


लेकिन वेदिक कर्मों की कामना

में चित लगा हुआ जिनका

उनके हृदय में रहने पर भी

आप उनसे हैं दूर बड़ा।


गुणगान से हृदय को शुद्ध कर लिया

परंतु जिन लोगों ने आपके

चित्वृति से अग्राह्य होने पर भी

अत्यंत निकट आप हैं उनके।


आत्मतत्व को जानते हैं जो

आत्मा के रूप में स्थित आप उनके

और मृत्यु के रूप में आप उनमें

जो शरीर को ही आत्मा मानें।


नमस्कार करता हूँ आपको

हम तो सेवक आपके

प्रभो, हमें आज्ञा दीजिए 

हम आपकी क्या सेवा करें।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

श्रुतदेव की सुनकर प्रार्थना 

हाथों से उसका हाथ पकड़कर

प्रभु ने मुस्कुराते हुए कहा।


“ बड़े बड़े ऋषी मुनि ये सब

पधारे तुम पर अनुग्रह करने को

लोकों को पवित्र करते हुए

मेरे साथ विचरण कर रहे वो।


देवता, पुण्यक्षेत्र और तीर्थ

पवित्र करते हैं धीरे धीरे

बहुत दिनों में वे ये करते

दर्शन, स्पर्श, स्नान आदि से।


परंतु ये संत पुरुष जो

पवित्र कर देते दृष्टि से ही

देवताओं को यह शक्तियाँ भी

संतों की दृष्टि से ही प्राप्त हुईं।


श्रुतदेव, जगत में ब्राह्मण

श्रेष्ठ हैं सब प्राणियों में

और फिर तो कहना की क्या जब

युक्त हों तपस्या, नियम, भक्ति से।


ब्राह्मण सर्व वेदमय हैं

और सर्व देवमय हूँ मैं

दुर्बुद्धि मनुष्य ही होते जो

ब्राह्मण का तिरस्कार करते हैं।


मेरा ही स्वरूप समझना

तुम इन ब्राह्मण ऋषियों को

इनकी पूजा करो श्रद्धा से तो 

मेरा ही पूजन कर लिया समझो।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

संदेश सुनकर श्री कृष्ण का

श्रुतदेव ब्राह्मण ने कृष्ण और 

ऋषियों की तब की आराधना।


भगवन स्वरूप को प्राप्त हो गए वो

और राजा बहुलाश्व को भी

भगवान की आराधना करने से

वही गति प्राप्त हो गयी।


भगवान की भक्ति करे भक्त कोई जैसे

वैसे ही भगवान भी उसकी भक्ति करें

दोनों भक्तों को प्रसन्न करके फिर

श्री कृष्ण द्वारका चले गए।


Rate this content
Log in