सामंजस्य
सामंजस्य
प्रकृति सामंजस्य की
आखिर क्यों जिंदगी में ऐसा मोड़ भी आता है ।
मुझे हर बात पर चुप कर दिया जाता है ।
कि मुझे मर्यादा का ध्यान रहे किंतु क्यों पुरुष हर मर्यादा लांघ जाता है ।
क्यों जोर से रोने नहीं दिया जाता? क्यों चिल्लाने से थामा जाता है ।
ताकि उनके स्वाभिमान बचा रहे अभिमान बना रहे उस उस उस स्वाभिमान का क्या?
जो दिन में सौ बार तोड़ा जाता है।
गरिमा मेरी जानती हूं मैं।
सबको पहचानती हूं मैं ।
टीस हृदय की किसे सुनाना।
साथ देने को किस बुलाऊं ।
कलयुग में तो कृष्णा भी नहीं आता है ।
बेटी हूं क्या चुप हो जाऊं हां क्या मैं जुल्मी को सह जाऊं।
चुप जो द्रौपदी रह पाती ये दुनिया क्या कह पाती।
इतना सब कुछ वह और मैं कैसे सह पाते
इस प्रकृति से सामंजस्य से करते-करते थक गई हूं मैं।
