रात भर
रात भर
रात भर झिलमिलाता है
चाँद आसमान में
इठलाता है
मुस्कराता है
कुछ कहता-सा
लगता है मुझसे वो
पर हर वक्त अपनी ही
कहता है
सुनता किसी की नहीं
बस
कहना भी खुद की
सुनना भी खुद की
लेकिन
हर पल रहता है वो
मुझी से मुखातिब !
जब मैं चलते-चलते
देखती हूं उसकी तरफ
तो लगता है जैसे
वो कहता है मुझसे
रुको, मैं भी आ रहा हूं
और मैं खुश
कि मेरा चाँद आ रहा है
मैं रुक जाती हूं
मगर अफसोस
वो तो बातों-बातों में
चला जाता है
मानो कहीं लुप्त गया हो
लगता है जैसे
नज़रें चुराता है मुझसे
कभी तो खेलता है
आँख-मिचौली भी वो
बड़ा नटखट है
सूरज के आते ही
जाने कहां छुप जाता है
फिर मुझे इंतज़ार रहता है
आने वाली रात का
मगर हर रात तो
कमबख्त वो भी नहीं आता
आता भी है तो
कभी कुछ देर के लिए
तो कभी एकदम नदारद
अब क्या कहूं ऐसे चाँद से
जिससे मेरा रिश्ता तो है
मगर अनकहा - सा !
