रामायण
रामायण
अयोध्या के राजा थे दशरथ
ख्याति बहुत महान थी,
राज्य बहुत बड़ा था उनका
पर कोई न संतान थी।
गुरु वशिष्ट के कहने पर
श्रृंगी ऋषि को न्योता दिया,
तीनों रानी और दशरथ ने
पुत्र्येष्टि यज्ञ किया।
तीनों रानी गर्भवती हुईं
कबूल हुई उन सब की दुआ,
सबसे बड़े पुत्र का तब
कौशल्या से जन्म हुआ।
केकई को एक पुत्र हुआऔर
दो पुत्र सुमित्रा को हुए,
अयोध्या में फिर जश्न हुआ
और बांटे सब को खीर पुए।
नामकरण का संस्कार था
गुरु वशिष्ठ थे वहा खड़े,
राम, लक्ष्मण ,भरत ,शत्रुघ्न
उन चारों के नाम पड़े।
राम नाम के भक्त हैं शिवजी
उनको जब ये ज्ञात हुआ,
चल पड़े वो प्रभु से मिलने
कागभसुंडि साथ हुआ।
कागभसुंडि को शिष्य बनाया
खुद ज्योत्षी का वेश धरा,
वर्तमान और भूत की बातें
भविष्य बतायें खरा खरा।
दोनों की तब अयोध्या में
हर तरफ प्रसिद्धि हुई ,
राजमहल की दासी से फिर
कौशल्या तक बात गयी।
राजमहल में पहुंचे शिवजी
धन्य हुए दर्शन करके,
सुन्दर निराली छवि राम की
ले गए आँखों में भर के।
बाल चरित्र बहुत थे सुँदर
जब वो थोड़े बड़े भये ,
अस्त्र शास्त्र की विद्या लेने
गुरुकुल को वो चले गए।
मुनि एक थे विश्वामित्र
यश उनका महान था,
विष्णु के ही रूप राम हैं
इतना उनको ज्ञान था।
बन में बिचरें बहुत असुर थे
किसी से वो न डरते थे,
ऋषिओं को वो कष्ट थे देते
मुनियों को तंग करते थे।
अयोध्या में तब गए मुनिवर
राजा ने सत्कार किया,
जो मांगोगे वही मिलेगा
ये उनको फिर वचन दिया।
राम लक्ष्मण को मांग लिया तब
राक्षसों का वध करने को,
दशरथ, क्या मैं ले जाऊं इन्हे
मुनियों को निर्भय करने को।
दुखी तो थे पर वचन दिया था
मुनि को दोनों पुत्र दिए,
तीर धनुष के साथ वो दोनों
विश्वामित्र के साथ गए।
रास्ते में ताड़का और
सुबाहु का संहार किया,
अस्त्र एक मारीच पे छोड़ा
समुन्दर के वो पार गया।
शिला रूप में गौतम पत्नी
अहल्या का उद्धार किया,
पांव से जब छुआ राम ने
दिव्या रूप तब उसको दिया।
पुष्प वाटिका में थे रघुवर
भांति भांति के फूल खिले.
सखिओं के संग जनक नंदिनी
दोनों पहली बार मिले।
जनक पुरोहित शतानन्द ने
विश्वामित्र को न्योता दिता ,
राज कुमारों को अपने संग
लाने का अनुरोध किया।
धनुष यज्ञ एक हो रहा है
पुत्री का स्वयम्बर होगा,
तोड़ेगा उसको जो योद्धा
सीता जी का वर होगा।
रंगशाला में दोनों भाई
उनकी छटा निराली थी,
मुख पर थी चंदा सी शोभा
कानों में उनके बाली थी।
सीता जी के आगमन से
स्वयम्बर का आरम्भ हुआ ,
राम सीता में दूरी थी पर
मन में उनका संग हुआ।
हिल न पाया धनुष किसी से
तोडना तो दूर रहा,
आये सब बारी बारी पर
हर कोई थक के चूर हुआ।
राम की जब बारी आयी
एक हाथ से उठा लिया,
बीच से उसको खंड किया और
धरती पे उसे डाल दिया।
गुस्सा परशुराम को आया
लक्ष्मण से संवाद किया,
रामचंद्र ने शांत किया तब
आशीर्वाद श्री राम को दिया।
सीता और राम की तब फिर
जयमाला संपन्न हुई ,
यश फैला सब और राम का
जनकपुरी तब धन्य हुई।
अयोध्या में जब खबर गयी तो
दशरथ बहुत प्रसन्न हुए ,
बाकी तीनों भाइयों के भी
विवाह वहीँ संपन्न हुए।
भरत की पत्नी मांडवी बनीं
लक्ष्मण की हुईं उर्मिला,
शत्रुघ्न को मिलीं श्रुतिकीर्ति
पिता जनक का चेहरा खिला।
अयोध्या लोटे चारों भाई
ऐसा आनंद था छाया,
मंगल गीत और ढोल नगाड़े
उत्सव था जैसे आया।