रामायण १७;निषादराज से भेंट
रामायण १७;निषादराज से भेंट
गुरु ब्राह्मण मुनि वंदना करके
राजमहल से बाहर वो आए
मुनि वशिष्ठ के चरण छुएं
नगरवासियों को समझाएं।
शिव पार्वती गणेश मनाकर
चले राम सीता और लक्ष्मण
अयोध्या में शोक था छाया
लंका में हुए बुरे शकुन।
टूटी दशरथ की मूर्छा
कहा सुमंत्र अब तुम जाओ
रथ पर उनको ले जाओ वन में
समझा कर फिर वापिस लाओ।
सुमंत्र नगर में रथ पर पहुंचे
तीनो लोग रथ पर बैठे जब
राम को वन में जाता देख
साथ हुए अयोध्यावासी सब।
वापिस नगर में जाओ तुम
राम थे उनको समझाते
सब थे राम के प्रेम में पागल
चले जाते, फिर लौट आते।
पहले दिन निवास किया प्रभु
तमसा नदी के तट पर
रात को चल दिए , जब सब सो रहे
ताकि चले जाएँ सब अपने घर।
सुबह उठे सब नगरवासी जब
राम को वहां था न पाया
वापिस सारे अयोध्या आ गए
उनको ये सब था न भाया।
सुमंत्र के संग तीनों पहुंचे
श्रृंगवेरपुर , गंगा थी जहाँ
राम ने गंगा महिमा सुनाई
स्नान किया तीनों ने वहां।
निषादराज ने खबर पाई तो
पहुंचे लेकर कंदमूल और फल
कुश और कोमल पत्ते बिछा दिए
साथ में रख दिया मीठा जल।
सीता और राम सो गए
निषाद और लक्ष्मण दें पहरा
लक्ष्मण से सब कथा सुनी तो
मन में था विषाद गहरा।
सुबह उठे सुमंत्र बोले
राजा कहा वापिस लाने को
बाकी आपकी जो आज्ञा हो
राम उन्हें कहें जाने को।
धर्म का त्याग मैं कर न पाऊं
प्राप्ति होती अपयश की
देती वो संताप बहुत है
जैसे मृत्यु सारे यश की।
सुमंत बोले, कहें थे दशरथ
सीता को तो ले ही आना
क्लेश न सह पाएगी वन का
तुम उसको फिर से समझाना।
राम ने सीता को ये कहा तो
सीता को वचन ये न भाया
बोलीं चांदनी चन्द्रमाँ ना छोड़े
क्या शरीर को छोड़ सकी छाया।
सुमंत्र से बोलीं सीता जी
सास ससुर से मेरे कहना
सुखी हूँ पति के साथ मैं वन में
उनके साथ मुझको रहना।
जब लौट रहे सुमंत्र रथ पर
प्रभु की तरफ देखें घोड़े
राम से वो थे बिछुड़ रहे
आँखों से दुखी लगते थोड़े।