रामायण-१ ; रामचरितमानस शुभारम्
रामायण-१ ; रामचरितमानस शुभारम्
गणेश जी की चरण वंदना
सरस्वती जी को धयाके
तुलसीदास शुरू करें रामायण
मन में छवि राम की ला के
प्रणाम करूँ मैं सभी देवता
ऋषि सिद्ध मुनि और ज्ञानी
ग्रन्थ, जिन्हने ज्ञान दिया हमें
और संत जनों की वाणी
मूढ़ मति कुछ भी ना जानूं
चला रचना ग्रन्थ की करने
शंकर जी का आशीर्वाद और
कृपा की है मुझपे रघुवर ने
अपनी लिखी हुई कविता तो
सबको लगती होती न्यारी
संत है वो जिसको है लगती
कविता किसी और की प्यारी
चारों वेदों की वंदना
बाल्मीकि मुनि को प्रणाम
अयोध्या और अयोध्या वासी
जिन के मन में बसते राम
धन्य हैं दशरथ, धन्य जनक हैं
भरत, लक्ष्मण और शत्रुघन है
धन्य हैं श्री हनुमान जी और
माता सीता को नमन है
मेरी रचना गुणों रहित है
बस राम नाम का गुन इसमें है
और चाहे कुछ भी नहीं पर
भक्ति, प्यार की धुन इसमें है
निर्गुण और सगुन रूपों से
चल जाता भक्त का काम
पर जो पूछो तुम सबसे बड़ा क्या
वो है प्रभु राम का नाम
श्री रघुवर का मैं सेवक हूँ
भले है मुझमे बहुत बुराई
पर प्रभु राम की कृपा देखिये
भक्त की देखें सिर्फ अच्छाई
प्रथम बार ये रचा चरित्र
शिव ने पार्वती को सुनाया
कागभसुंडि जी को दे दिया
फिर याज्ञवल्क्य जी ने पाया
उन्होंने फिर श्री भरद्वाज को
रस ले ले के गा के सुनाया
मैंने कथा सुनी अपने गुरु से
ये प्रसंग था मुझको भाया
रामचरित जैसे अथाह सरोवर
सात कांड हैं बहुत ही सूंदर
राम और सीता का यश जैसे
अमृत सा जल इसके अंदर
भरद्वाज प्रयाग में बसते
याज्ञवल्क्य से पूछते जाते
क्या राजा राम वो ही राम हैं
जिनकी महिमा शिव भी गाते
याज्ञवल्क्य ने भरद्वाज को
कहा श्रद्धा से सुनो हे भाई
संदेह हुआ था सती जी को भी
फिर उनको वो कथा सुनाई।
