पति का बटुआ
पति का बटुआ
बहुत प्यारा है रिश्ता हमारा ,
मुझे मेरा पति है सबसे प्यारा।
मेरी हर ख़्वाहिश पूरी कर देते हैं,
जो भी कहूं अपनी हामी भर देते हैं।
ये नहीं कि वो जोरू के गुलाम हैं,
बस मेरी हर ख़ुशी को अपनी कर देते हैं ।
एक रोज़ वो अपना बटुआ घर भूल गए ,
शायद जल्दी में थे जो यू हीं निकल गए ,
मेरी नज़र पड़ी तो मैंने बटुआ खोला ,
क्या है इसमें जरा उसको टटोला ,
क्या है इसमें जानने को मेरा मन डोला ,
हैरान थी इसे खाली देखकर ,
पहले रहता था ये नोटों से भरकर।
फिर सोचा डिजिटल जमाना है,
ज़्यादा नोट रखने का रिस्क क्यों उठाना है ,
एटीएम से ही सब लेन देन हो जाता है ,
अच्छा है कम पैसे हैं,
क्यूंकि बेईमानी का जमाना है ।
इस सोच के साथ आगे टटोला ,
कुछ पैसे मिले, कुछ पूजा के फूल थे ,
कुछ पर्चियां, कुछ कागज पुराने ,
कुछ सिक्के मिले और एक आठ आणे ,
पर अभी भी किसी और चीज के लिए बेचैन थी ,
फिर एक एक कर सब कागज देखने लगी ,
आज तक रहती हर मामले में चुनिंदा सी ,
एक कागज पड़ कर हो गयी शर्मिंदा सी ,
उस पर घर का हिसाब लिखा था ,
"क्यों कहीं घूमने नहीं जाते",
इस सवाल का जवाब लिखा था ।
दूध, राशन, मेरी जन्मदिन की साड़ी ,
और घर की ई एम आई लिखी थी ,
एक कोने में छोटे अक्षरों में पैंट,
शर्ट और टाई लिखी थी ।
हिसाब में कुछ जमा घटा भी था ,
नीचे शेष सिर्फ 100 रूपया ही बचा था ।
बहुत कुछ कह गया बटुआ पति का बोले बिन ,
हो गयी आँख मेरी भी नम उस दिन ,
एक बात समझ आ गयी
कि अपनी ख्वाहिशों को भी दबाता है आदमी ।
अपनी जरूरतों को भी छुपाता है आदमी ।
जब अपनी कमाई से घर चलाता है आदमी ।
खुद के दर्द को मन में छिपा कर ,
हर वक़्त मुस्कुराता है आदमी।
