पता नहीं...
पता नहीं...

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जिस्म यहाँ ज़रूर है, ख़ुद कहाँ है पता नहीं
धड़कन मौजूद है, दिल कहाँ है पता नहीं !
महफ़िल में चल रहा है, दौर गुफ़्तगू का...
सुन तो रहा है, तवज्जो कहाँ है पता नहीं !
गले में टांग रखी है पते की एक तख़्ती सी
बेख़बरी का आलम, रहता कहाँ है पता नहीं !
होता है यहाँ हर रोज़... मैकदे के खुलते ही
बंद होने पे मगर, जाता कहाँ है पता नहीं !
बहुत सी हसरतों को गला घोंट कर मारा है
इतनी लाशों को दफ़्नाता कहाँ है पता नहीं !