प्रवक्ता
प्रवक्ता
आज एक टीवी डिबेट में,
प्रवक्ता जी आ गये लपेट में,
मुँह से ना वाणी फुटती थी ,
जिव्हा रह रह कर रुकती थी ,
जो मन का था ना कह पाते ,
बस वो पार्टी की सलीब उठाते ,
जिसको मसीहा खुद का कहते,
वो बस घर के अंदर थे रहते ,
ये पार्टी के वफादार प्रवक्ता ठहरे ,
सो हर कील बदन पर अपने सहते ,
मन में कितना अंतर्द्वंद भरा था ,
एक एक घाव वैसा ही हरा था ,
कल तक जो पार्टी पीतल थी ,
बदली निष्ठा अब वो स्वर्ण खरा था ,
कोई थाली का बैंगन था कहता ,
कोई करता गिरगिट से तुलना ,
कालिख कैसे पोंछे वो मुँह से ,
जब स्वीकारा स्याही से धुलना ,
हर सवाल का अब उनका बस ,
उत्तर बिल्कुल विपरीत हुआ है ,
कल तक रहे अभिव्यक्ति के पुजारी ,
मौन आज क्यों इष्ट हुआ है ,
धर्मनिरपेक्षता का भी अब उनका ,
पैमाना नाप का मचल गया है ,
कल तक जो था वंचित को पोषण ,
अब तुष्टीकरण में बदल गया है ,
कल तक संवाद सराहते थे जो ,
असहिष्णु आज क्यों हो जाते हैं ,
जिनको कल तक धिक्कारा हरदम ,
अब उनके ही पक्ष खङे पाते हैं ,
जो राष्ट्रवाद ना लगता उनको ,
वो राष्ट्रद्रोह परिभाषित होता ,
कुर्सी के इस हेर-फेर में बस ,
हर शब्द अर्थ अब अपना खोता ,
निष्ठा जब बिकती सत्ता पर ,
तब तब ही है ऐसा होता ,
आज काटता दलहन है वो ,
जो कल तक रहा धान था बोता ,
विचारधारा से है हो गया किनारा ,
सूद लगे अब असल से प्यारा ,
चिङाता है आईना भी रह रह के ,
प्रवक्ता जी जो धरा रूप ये न्यारा ,
प्रवक्ता जी जो धरा रूप ये न्यारा ।।
