पृथ्वी
पृथ्वी
बृहत्यकाय ब्रह्माण्ड में,
एक बिंदु से भी नगण्य,
क्षुद्र सी हमारी पृथ्वी,
जल से परिपूर्ण,
कहीं जलधि, कहीं प्रवाहिनी,
कहीं झरने, कहीं धारा,
सब सृष्टि के अनुकूल।
मात्र थोड़ी सी मृत्तिका है,
हमारे अस्तित्व को नींव देने को।
उसको भी झर झर बिखेरा है,
हमने,
अपनी झूठे दंभ को,
सींच लेने को।
इस असीम सृष्टि में,
अदृश्य सी हमारी धरा,
ना जाने हम तुच्छ जीवों को,
क्यूं फिर अपने अपराजेय होने का,
भ्रम चढ़ा?
तेरा ,मेरा ,इसका, उसका,
अपना ,पराया में समय गंवाया।
जब वक़्त आया अलविदा का,
केवल तब ही मगज फिरा।
अपार उज्वल अंतरिक्ष में,
असंख्य तारों के मध्य कहीं,
निलंबित किसी एक छोर पर,
खपिंडो के बीच घिरी,
जब अपने व्यूह में कायम है,
तो उसी धरा के किसी एक कोने में,
हम अदृश्य सा स्वयं लिए,
क्यूं नष्ट करें,
उस संतुलन को।
जो अनंतकाल से दायम है।
