प्रकृति का सिंगार
प्रकृति का सिंगार
हो रहा आगाज फिर से धरा की कांति का !!
ऐ मेरी आली सुन !!
अरी देख जरा अचला का अभिनव श्रृंगार हो रहा!!
खुल रहे कपाट इसकी अन्नत कांति के
हट रहा आवरण इसकी उदार प्रवृत्ति का
मैं अपनी ही कल्पना में मत्त हूं
विवर्ण हो चुकी पृथ्वी को तरणि की मरीचि फिर से छू रही
तेरा शुचि दामन है ,
इसमें फिर से नृत्य हो रहा
वारिसों की बूँदों से तरुआओं की तृष्णा की तृप्ती हो रही
सब ओर रंग बिखर रहे हैं,
घोष वारिदों की हो रही,
तमा की चाँदनी में भी वो अदृश्य रास हो रहा!!
हरियाली ने चहूँ ओर अपने पैरों को फैला रखें हैं
वहीं आसमान में सफेद बादलों ने अपना ढेरा जमा रखा है
ऐसा लग रहा है...
मानो सूर्य ने सभी रंगों को खुद में समेट लिया है,
और कह रहा है कि सभी केवल प्रकृति के सिंगार में समा जाएं।।