प्रेम की भाषा- kavi anupam Mishra sudarshi
प्रेम की भाषा- kavi anupam Mishra sudarshi
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दीदार ए हुस्न दिखाने को तवायफें भी बेकरार थीं।
दास्तां ए इश्क सुनकर के मेरी जुबां से,
आज वो अपने कृत्यों पर ही शर्मसार थीं।
किसी ने इश्क को जोड़ा परस्पर भोग से।
किसी ने जोड़ा था इसको प्रेम के रोग से।
मगर मैंने नई नींव डाली है ये अनुपम।
करुण भावों से अश्रु बहा प्रेम के योग से।।
है वो रास अद्भुत जिसमें न आसक्ति हो तन की।
प्रियतम के लिए करुणामई को भक्ति ही मन की।
है वो रास अद्भुत जिसमें मिलन हो तो रुदन हो।
है वह प्यास अद्भुत बिछड़ें तो फिर भी मिलन हो।
सभी का प्रेम हो ऐसा प्रियतमा आत्म स्पर्शी।
शाश्वत प्रेम ही परिपूर्ण हो बनकर सुदर्शी।
