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ritesh deo

Abstract

4  

ritesh deo

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प्रेम और घृणा

प्रेम और घृणा

2 mins
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प्रेम पर सब लिखते हैं,

घृणा पर कोई नहीं लिखता, 

जबकि कई बार प्रेम से ज़्यादा तीव्र होती है घृणा

प्रेम के लिए दी जाती है शाश्वत बने रहने की शुभकामना,

लेकिन प्रेम टिके न टिके, घृणा बची रहती है। 


कई बार ऐसा भी होता है

कि पहली नज़र में जिनसे प्रेम होता है

दूसरी नज़र में उनसे ईर्ष्या होती है और 

अंत में कभी-कभी वह घृणा तक में बदल जाती है।


यह तजवीज़ कभी काम नहीं आती

कि सबसे प्रेम करो, ईर्ष्या किसी से न करो

और घृणा से दूर रहो।


हमारे समय में नहीं, शायद हर समय

प्रेम की परिणतियाँ कई तरह की रहीं

कभी-कभी ईर्ष्या भी बदलती रही प्रेम में

लेकिन ज़्यादातर प्रेम बदलता रहा

कभी-कभी ईर्ष्या और घृणा तक में

और अक्सर ऊब और उदासी में।


हालाँकि कामना यही करनी चाहिए

कि इस परिणति तक न पहुँचे प्रेम

और कई बार ऐसा होता भी है

कि ऊब और उदासी और ईर्ष्या और नफऱत के नीचे

भी तैरती मिलती है एक कोमल भावना

जिसे ज़िंदगी की रोशनी सिर्फ़ प्रेम की तरह पहचानती है।


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