पीस ऑफ़ माइंड
पीस ऑफ़ माइंड
जब आंखे उनकी बन जाती थीं एक्स रे मशीन
और उतार लेतीं थी आत्मा तक के चित्र
पूरी ढकी हुई भी मुझको कर देतीं थी नग्न सा
तो सोचती थी कि कहीं पीस ऑफ़ माइंड मिले।
जब जाना होता था छोड़ कर लाडली को
अपने व उसके चारों और खींच कर एक लक्ष्मण रेखा
और वापसी भी अपनी व उसकी सलामती की दुआ के साथ
तो चाहती थी कि कहीं पीस ऑफ़ माइंड मिले।
घर से रोज रोज़ सैकड़े की दूरी सुबह शाम
साथ मे दो नन्ही सी जान
थक कर रोज टूट जाना
तो लगता था कि कहीं पीस ऑफ़ माइंड मिले।
जहाँ भी रही दोहरा भेष सजाया
न कुछ किया न करने दिया
दूर से ही सही रोटियां अपनी ही सेंकीं
फिर भी लगा कि पीस ऑफ़ माइंड मिले।
जो जल सागर में बसे सो यही घट माही
ऐसे घट घट राम हैं दुनिया देखत नाहीं
इतना तो पढ़ा पर ये ना गढ़ा कि,
अब भी नही तो पीस ऑफ़ माइंड कहाँ मिले?
