फिरता लम्हा
फिरता लम्हा
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ज़िंदगी के कुछ पल
कहाँ रुकते थे ?
सब्र करते थे ?
रह जाते थे पीछे....
बस यादो में बसर करते थे
हर लम्हा यूँ ही उड़ता
फिरता क्यूँ ज़िंदगी का
उन्हें कहा पता के हम तो
पतझड़ के पत्तो पे
भी सफर करते हैं।
यूँ ही रात बीती जा रही
तारों की छाँव में
क्या पता चांद..
को कि हम तो
ज़मी पे भी उसकी
खबर रखते हैं।